Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

View full book text
Previous | Next

Page 141
________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक फिर गाड़ी-गाड़े जोते । हस्तिशीर्ष नगर पहुँचे । हस्तिशीर्षनगर बाहर अग्र उद्यान में सार्थ को ठहराया । गाड़ी-गाड़े खोले। फिर बहुमूल्य उपहार लेकर हस्तिशीर्षनगरमें प्रवेश किया । कनककेतुराजा के पास आए । उपहार राजा समक्ष उपस्थित किया । राजा कनककेतुने उन सांयात्रिक नौकावणिकों के उस बहुमूल्य उपहार स्वीकार किया। सूत्र - १८५ फिर राजा ने उन सांयात्रिक नौकावणिकों से कहा-'देवानुप्रिय ! तुम लोग ग्रामों में यावत् आकरों में घूमते हो और बार-बार पोतवहन द्वारा लवणसमुद्र में अवगाहन करते हो, तुमने कहीं कोई आश्चर्यजनक-अद्भुतअनोखी वस्तु देखी है ?' तब सांयात्रिक नौकावणिकों ने राजा कनककेतु से कहा-'देवानुप्रिय ! हम लोग इसी हस्तिशीर्ष नगर के निवासी हैं; इत्यादि पूर्ववत् यावत् हम कालिकद्वीप के समीप गए । उस द्वीप में बहुत-सी चाँदी की खानें यावत् बहुत-से अश्व हैं । वे अश्व कैसे हैं? नील वर्ण वाली रेणु के समान और श्रोत्रिसूत्रक के समान श्याम वर्ण वाले हैं । यावत् वे अश्व हमारी गंध के कईं योजन दूर चले गए । अत एव हे स्वामिन् ! हमने कालिकद्वीप में उन अश्वों को आश्चर्यभूत देखा है।' कनककेतु राजा ने उन सांयात्रिकों से यह अर्थ सूनकर उन्हें कहा-'देवानुप्रियो! तुम मेरे कौटुम्बिक पुरुषों के साथ जाओ और कालिकद्वीप से उन अश्वों को यहाँ ले आओ ।' तब सांयात्रिक वणिकों ने कनककेतु राजा से-'स्वामिन् ! बहुत अच्छा' ऐसा कहकर उन्होंने राजा का वचन आज्ञा के रूप में विनयपूर्वक स्वीकार किया । तत्पश्चात् कनककेतु राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा-'देवानुप्रियो ! तुम सांयात्रिक वणिकों के साथ जाओ और कालिकद्वीप से मेरे लिए अश्व ले आओ।' उन्होंने भी राजा का आदेश अंगीकार किया । तत्पश्चात् कौटुम्बिक पुरुषों ने गाड़ी-गाड़े सजाए । सजाकर उनमें बहुत-सी वीणाएं, वल्लकी, भ्रामरी, कच्छरी, भंभा, षट्भ्रमरी आदि विविध प्रकार की वीणाओं तथा विचित्र वीणाओं से और श्रोत्रेन्द्रिय के योग्य अन्य बहत-सी वस्तओं से गाडी-गाडे भर लिए । श्रोत्रेन्द्रिय के योग्य वस्तएं भरकर बहत-से कष्ण वर्ण वाले, शक्ल वर्ण वाले, काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पुस्तकर्म, लेप्यकर्म तथा वेढ़िम, पूरिम तथा संघातिम एवं अन्य चक्षु-इन्द्रिय के योग्य द्रव्य गाड़ी -गाड़ों में भरे । यह भरकर बहुत-से कोष्ठपुट केतकीपुट, पत्रपुट, चोय-त्वक्पुट, तगरपुट, एलापुट, ह्रीवेर पुट, उशीर पुट, चम्पकपुट, मरुक पुट, दमनकपुट, जाती पुट, यूथिकापुट, मल्लिकापुट, वासंतीपुट, कपूरपुट, पाटलपुट तथा अन्य बहुत-से घ्राणेन्द्रिय को प्रिय लगने वाले पदार्थों से गाडी-गाडे भरे । तदनन्तर बहुत-से खांड़, गुड़, शक्कर, मत्स्यंडिका, पुष्पोत्तर तथा पद्मोत्तर जाति की शर्करा आदि अन्य अनेक जिह्वा-इन्द्रिय के योग्य द्रव्य गाडी-गाडों में भरे । उसके बाद बहत-से कोयतक-कंबल-प्रावरण-जीन, मलयविशेष प्रकार का आसन मढ़े, शिलापट्टक, यावत् हंसगर्भ तथा अन्य स्पर्शेन्द्रिय के योग्य द्रव्य गाड़ी-गाड़ों में भरे । उक्त सब द्रव्य भरकर उन्होंने गाड़ी-गाड़े जोते । जोतकर जहाँ गंभीर पोतपट्टन था, वहाँ पहुँचे । गाड़ी-गाड़े खोले । पोतवहन तैयार करके उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध के द्रव्य तथा काष्ठ, तृण, जल, चावल, आटा, गोरस तथा अन्य बहुत-से पोतवहन के योग्य पदार्थ पोतवहन में भरे । वे उपर्युक्त सब सामान पोतवहनमें भरकर दक्षिणदिशा के अनुकूल पवन से जहाँ कालिकद्वीप था, वहाँ आए । आकर लंगर डाला । उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध के पदार्थों को छोटी-छोटी नौकाओं द्वारा कालिक द्वीप में उतारा। वे घोड़े जहाँ-जहाँ बैठते थे, सोते थे और लोटते थे, वहाँ-वहाँ वे कौटुम्बिक पुरुष वह वीणा, विचित्र वीणा आदि श्रोत्रेन्द्रिय को प्रिय वाद्य बजाते रहने लगे तथा इनके पास चारों ओर जा दिए-वे निश्चल, निस्पन्द और मूक होकर स्थित हो गए । जहाँ-जहाँ वे अश्व बैठते थे, यावत लोटते थे, वह कौटुम्बिक पुरुषों ने बहुतेरे कृष्ण वर्ण वाले यावत् शुक्ल वर्ण वाले काष्ठकर्म यावत् संघातिम तथा अन्य ब चक्षु-इन्द्रिय के योग्य पदार्थ रख दिए तथा उन अश्वों के पास चारों ओर जाल बिछा दिया और वे निश्चल और मूक होकर छिपे रहे । जहाँ-जहाँ वे अश्व बैठते थे, सोते थे, खड़े होते थे अथवा लोटते थे वहाँ-वहाँ उन कौटुम्बिक पुरुषों ने बहुत से कोष्ठपुट तथा दूसरे घ्राणेन्द्रिय के प्रिय पदार्थों के पूंज और नीकर कर दिए । उनके पास चारों ओर जाल मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 141

Loading...

Page Navigation
1 ... 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162