Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 139
________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक में ध्यान किया । शेष गौतमस्वामी के समान वर्णन जानना । विशेष यह कि उन्होंने युधिष्ठिर अनगार से पूछा-भिक्षा की अनुमति माँगी । फिर वे भिक्षा के लिए जब अटन कर रहे थे, तब उन्होंने बहुत जनों से सूना-'देवानुप्रियो ! तीर्थंकर अरिष्टनेमि गिरनार पर्वत के शिखर पर, एक मास का निर्जल उपवास करके, पाँच सौ छत्तीस साधुओं के साथ काल-धर्म को प्राप्त हो गए हैं, यावत् सिद्ध, मुक्त, अन्तकृत् होकर समस्त दुःखों से रहित हो गए हैं ।' तब युधिष्ठिर के सिवाय वे चारों अनगार बहुत जनों के पास से यह अर्थ सूनकर हस्तिकल्प नगर से बाहर नीकले । जहाँ सहस्राम्रवन था और जहाँ युधिष्ठिर अनगार थे वहाँ पहुँचे । आहार-पानी की प्रत्युपेक्षणा की, प्रत्युप्रेक्षणा करके गमनागमन का प्रतिक्रमण किया । फिर एषणा-अनेषणा की आलोचना की । आलोचना करके आहार-पानी दिखलाया । दिखला कर युधिष्ठिर अनगार से कहा-'हे देवानुप्रिय ! यावत् कालधर्म को प्राप्त हुए हैं। अतः हे देवानुप्रिय ! हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि भगवान के निर्वाण का वृत्तान्त सूनने से पहले ग्रहण किये हुए आहारपानी को परठ कर धीरे-धीरे शत्रंजय पर्वत पर आरूढ हो तथा संलेखना करके झोषणा का सेवन करके और मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरे-रहे, इस प्रकार कहकर सबने परस्पर के इस अर्थ को अंगीकार किया। वह पहले ग्रहण किया आहार-पानी एक जगह परठ दिया । शत्रुजय पर्वत गए । शत्रुजय पर्वत पर आरूढ़ हुए। आरूढ़ होकर यावत् मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरने लगे । तत्पश्चात् उन युधिष्ठिर आदि पाँचों अनगारों ने सामायिक से लेकर चौदह पूर्वो का अभ्यास करके बहत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन करके, दो मास की संलेखना से आत्मा को झोषण करके, जिस प्रयोजन के लिए नग्नता, मुण्डता आदि अंगीकार की जाती है, उस प्रयोजन को सिद्ध किया । उन्हें अनन्त यावत् श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त हुआ । यावत् वे सिद्ध हो गए। सूत्र-१८३ दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात द्रौपदी आर्या ने सव्रता आर्या के पास सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया | बहत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन किया । अन्त में एक मास की संलेखना करके, आलोचना और प्रतिक्रमण करके तथा कालमास में काल करके ब्रह्मलोक नामक स्वर्ग में जन्म लिया । ब्रह्मलोक नामक पाँचवे देवलोक में कितनेक देवों की दस सागरोपम की स्थिति है। उनमें द्रौपदी देव की भी दस सागरोपम की स्थिति है । गौतमस्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से प्रश्न किया-'भगवन् ! वह द्रुपद देव वहाँ से च्यवकर कहाँ जन्म लेगा ?' तब भगवान ने उत्तर दिया-'ब्रह्मलोक स्वर्ग से वहाँ की आयु, स्थिति एवं भव का क्षय होने पर महाविदेह वर्ष में उत्पन्न होकर यावत् कर्मों का अन्त करेगा । इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने सोलहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादित किया है। ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१६ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 139

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