Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 148
________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने पाँचों पुत्रों के हृदय की ईच्छा जानकर पाँचों पुत्रों से इस प्रकार कहा-'पुत्रों ! हम किसी को भी जीवन से रहित न करें । यह सुंसुमा का शरीर निष्प्राण, निश्चेष्ट और जीवन द्वारा त्यक्त है, अत एव हे पुत्रों ! सुंसुमा दारिका के मांस और रुधिर का आहार करना हमारे लिए उचित होगा । हम लोग उस आहार से स्वस्थ होकर राजगृह को पा लेंगे । धन्य सार्थवाह के इस प्रकार कहने पर उन पाँच पुत्रों ने यह बात स्वीकार की। तब धन्य सार्थवाह ने पाँचों पुत्रों के साथ अरणि की। फिर शर बनाया । दोनों तैयार करके शर से अरणि का मंथन किया । अग्नि उत्पन्न की । अग्नि धौंकी, उसमें लकड़ियाँ डालीं, अग्नि प्रज्वलित करके सुंसुमा दारिका का मांस पका कर उस मांस का और रुधिर का आहार किया । उस आहार से स्वस्थ होकर वे रागजृह नगरी तक पहुँचे | अपने मित्रों एवं ज्ञातिजनों, स्वजनों, परिजनों आदि से मिले और विपुल धन, कनक, रत्न आदि के तथा धर्म, अर्थ एवं पुण्य के भागी हुए । तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने सुसुमा दारिका के बहुत-से लौकिक मृतक-कृत्य किए, तदनन्तर कुछ काल बीत जाने पर वह शोकरहित हो गया। सूत्र-२१२ उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर राजगृह के गुणशील चैत्य में पधारे । उस समय धन्य सार्थवाह वन्दना करने के लिए भगवान के निकट पहुँचा । धर्मोपदेश सूनकर दीक्षित हो गया । क्रमशः ग्यारह अंगों का वेत्ता मुनि हो गया । अन्तिम समय आने पर एक मास की संलेखना करके सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्यवन करके महाविदेह क्षेत्र में संयम धारण करके सिद्धि प्राप्त करेगा । हे जम्बू ! जैसे उस धन्य सार्थवाह ने वर्ण के लिए, रूप के लिए, बल के लिए अथवा विषय के लिए सुंसुमा दारिका के मांस और रुधिर का आहार नहीं किया था, केवल राजगृह नगर को पाने के लिए ही आहार किया था । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु या साध्वी वमन को झराने वाले, पित्त को, शुक्र को और शोणित को झराने वाले यावत् अवश्य ही त्यागने योग्य इस औदारिक शरीर के वर्ण के लिए, बल के लिए अथवा विषय के लिए आहार नहीं करते हैं, केवल सिद्धिगति को प्राप्त करने के लिए आहार करते हैं, वे इसी भव में बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहत श्राविकाओं के अर्चनीय होते हैं एवं संसार-कान्तार को पार करते हैं । जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने अठारहवे ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है । जैसा मैनें सूना वैसा ही तुम्हें कहा है । अध्ययन-१८ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 148

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