Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक करें । तत्पश्चात् पुरुषादानीय अरिहंत पार्श्व ने स्वयमेव काली कुमारी को, पुष्पचूला आर्या को शिष्यनी के रूप में प्रदान किया । तब पुष्पचूला आर्या ने काली कुमारी को स्वयं ही दीक्षित किया । यावत् वह काली प्रव्रज्या अंगीकार करके विचरने लगी । तत्पश्चात् वह काली आर्या ईर्यासमिति से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी आर्या हो गई। तदनन्तर उस काली आर्या ने पुष्पचूला आर्या के निकट सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा बहुत-से चतुर्थभक्त-उपवास, आदि तपश्चरण करती हुई विचरने लगी।
तत्पश्चात् किसी समय, एक बार काली आर्या शरीरबाकुशिका हो गई । अत एव वह बार-बार हाथ धोने लगी, पैर धोने लगी, सिर धोने लगी, मुख धोने लगी, स्तनों के अन्तर धोने लगी, काँखों के अन्तर-प्रदेश धोने लगी
और गुह्यस्थान धोने लगी । जहाँ-जहाँ वह कायोत्सर्ग, शय्या या स्वाध्याय करती थी, उस स्थान पर पहले जल छिड़क कर बाद में बैठती अथवा सोती थी। तब पुष्पचूला आर्या ने उस काली आर्या से कहा- देवानुप्रिये ! श्रमणी निर्ग्रन्थियों को शरीरबकुशा होना नहीं कल्पता और तुम देवानप्रिये ! शरीरबकशा हो गई हो । बार-बार हाथ धोती हो, यावत् पानी छिड़ककर बैठती और सोती हो । अत एव देवानुप्रिये ! तुम इस पापस्थान की आलोचना करो, यावत् प्रायश्चित्त-अंगीकार करो ।' तब काली आर्या ने पुष्पचूला आर्या की यह बात स्वीकार नहीं की । यावत् वह चूप बनी रही।
वे पुष्पचूला आदि आर्याएं, काली आर्या की बार-बार अवहेलना करने लगी, निन्दा करने लगी, चिढने लगी, गर्दा करने लगी, अवज्ञा करने लगी और बार-बार इस अर्थ को रोकने लगी। निर्ग्रन्थी श्रमणियों द्वारा बारबार अवहेलना की गई यावत् रोकी गई उस काली आर्यिका के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ-'जब मैं गृहवास में थी, तब मैं स्वाधीन थी, किन्तु जब से मैंने मुण्डित होकर गृहत्याग कर अनगारिता की दीक्षा अंगीकार की है, तब से मैं पराधीन हो गई हूँ। अत एव कल रजनी के प्रभातयुक्त होने पर यावत् सूर्य के देदीप्यमान होने पर अलग उपाश्रय ग्रहण करके रहना ही मेरे लिए श्रेयस्कर होगा । दूसरे दिन सूर्य के प्रकाशमान होने पर उसने पृथक् उपाश्रय ग्रहण कर लिया । वहाँ कोई रोकने वाला नहीं रहा, हटकने वाला नहीं रहा, अत एव वह स्वच्छन्दमति हो गई और बार-बार हाथ-पैर आदि धोने लगी, यावत् जल छिड़क-छिड़क कर बैठने और सोने लगी।
तत्पश्चात् वह काली आर्या पासत्था पासत्थविहारिणी, अवसन्ना, अवसन्नविहारिणी, कुशीला, कुशीलविहारिणी, यथाच्छंदा, यथाछंदविहारिणी, संसक्ता तथा संसक्तविहारिणी होकर, बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय अर्द्धमास की संलेखना द्वारा आत्मा को क्षीण करके तीस बार के भोजन को अनशन से छेदकर, उस पापकर्म की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना ही, कालमास में काल करके चमरचंचा राजधानी में, कालावतंसक नामक विमान में, उपपात सभा में, देवशय्या में, देवदूष्य वस्त्र से अंतरित होकर अंगुल के असंख्यातवे भाग की अवगाहना द्वारा, काली देवी के रूप में उत्पन्न हुई । तत्पश्चात् काली देवी तत्काल सूर्याभ देव की तरह यावत् भाषापर्याप्ति और मनः पर्याप्ति आदि पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से युक्त हो गई । वह काली देवी चार हजार सामानिक देवों तथा अन्य बहुतेरे कालावतंसक नामक भवन में निवास करने वाले असुरकुमार देवों और देवियों का अधिपतित्व करती हुई यावत् रहने लगी । इस प्रकार हे गौतम ! काली देवी ने वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाव प्राप्त किया है यावत् उपभोग में आने योग्य बनाया है।
गौतम स्वामी ने प्रश्न किया-'भगवन् ! काली देवी की कितने काल की स्थिति कही गई है ?' भगवान् हे गौतम ! अढ़ाई पल्योपम की स्थिति कही है । गौतम-'भगवन् ! काली देवी उस देवलोक से अनन्तर च्यवन करके कहाँ उत्पन्न होंगी?' भगवान्-'गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर यावत् सिद्धि प्राप्त करेगी यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगी।' हे जम्बू ! यावत् सिद्धि को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ कहा है । वही मैंने तुमसे कहा है।
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मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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