Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 150
________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक समान यावत् दाह-ज्वर उत्पन्न हो गया । वे रुग्ण होकर रहने लगे । तत्पश्चात् एक बार किसी समय स्थविर भगवंत पुण्डरीकिणी नगरी में पधारे और नलिनीवन उद्यान में ठहरे । तब पुंडरीक राजमहल से नीकला और उसने धर्मदेशना श्रवण की । तत्पश्चात् धर्म सूनकर पुंडरीक राजा कंडरीक अनगार के पास गया । वहाँ जाकर कंडरीक मुनि की वन्दना की, नमस्कार किया । उसने कंडरीक मुनि का शरीर सब प्रकार की बाधा से युक्त और रोग से आक्रान्त देखा । यह देखकर राजा स्थविर भगवंत के पास गया । स्थविर भगवंत को वन्दन-नमस्कार किया । इस प्रकार निवेदन किया-'भगवन् ! मैं कंडरीक अनगार की यथाप्रवृत्त औषध और भेषज से चिकित्सा कराता हूँ अतः भगवन् ! आप मेरी यानशाला में पधारिए । तब स्थविर भगवान ने पुंडरीक राजा का यह विवेचन स्वीकार करके यावत् यानशाला में रहने की आज्ञा लेकर विचरने लगे-जैसे मंडुक राजा ने शैलक ऋषि की चिकित्सा करवाई, उसी प्रकार राजा पंडरीक ने कंडरीक की करवाई। चिकित्सा होने पर कंडरीक अनगार बलवान शरीरवाले हो गए तत्पश्चात् स्थविर भगवान ने पुण्डरीक राजा से पूछा तदनन्तर वे बाहर जाकर जनपद-विहार विहरने लगे। उस समय कण्डरीक अनगार उस रोग आतंक से मुक्त हो जाने पर भी उस मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार में मूर्च्छित, गद्ध, आसक्त और तल्लीन हो गए । अत एव वे पुण्डरीक राजा से पूछकर बाहर जनपदों में उग्र विहार करने में समर्थ न हो सके । शिथिलाचारी होकर वहीं रहने लगे । पुण्डरीक राजा ने इस कथा का अर्थ जाना तब वह स्नान करके और विभूषित होकर तथा अन्तःपुर के परिवार से परिवृत्त होकर जहाँ कंडरीक अनगार थे वहाँ आया । उसने कंडरीक को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की। फिर वन्दना की, नमस्कार किया । इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! आप धन्य हैं, कृतार्थ हैं, कृतपुण्य हैं, और सुलक्षण वाले हैं । देवानुप्रिय ! आपको मनुष्य के जन्म और जीवन का फल सुन्दर मिला है, जो आप राज्य को और अन्तःपुर को त्यागकर और दुत्कार कर प्रव्रजित हुए हैं । और मैं अधन्य हूँ, पुण्यहीन हूँ, यावत् राज्य में, अन्तःपुर में और मानवीय कामभोगों में मूर्छित यावत् तल्लीन हो रहा हूँ, यावत् दीक्षित होने के लिए समर्थ नहीं हो पा रहा हूँ । अत एव आप धन्य हैं, यावत् आपको जन्म और जीवन का सुन्दर फल प्राप्त हुआ है। तत्पश्चात् कण्डरीक अनगार ने पुण्डरीक राजा की इस बात का आदर नहीं किया । यावत् वह मौन बने रहे। तब पुण्डरीक ने दूसरी बार और तीसरी बार भी यही कहा । तत्पश्चात् ईच्छा न होने पर भी विवशता के कारण, लज्जा से और बड़े भाई के गौरव के कारण पुण्डरीक राजा से पूछा-पूछकर वह स्थविर के साथ बाहर जनपदों में विचरने लगे। उस समय स्थविर के साथ-साथ कुछ समय तक उन्होंने उग्र-उग्र विहार किया। उसके बाद वह श्रमणत्व से थक गए, श्रमणत्व से ऊब गए और श्रमणत्व से निर्भर्त्सना को प्राप्त हए । साधता के गणों से रहित हो गए । अत एव धीरे-धीरे स्थविर के पास से खिसक गए। जहाँ पुण्डरीकिणी नगरी थी और जहाँ पुण्डरीक राजा का भवन था, उसी तरफ आए । आकर अशोकवाटिका में, श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक पर बैठ गए। बैठकर भग्नमनोरथ एवं चिन्तामग्न हो रहे । तत्पश्चात् पुण्डरीक राजा की धाय-माता जहाँ अशोकवाटिका थी, वहाँ गई । वहाँ जाकर उसने कण्डरीक अनगार को अशोकवृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक पर भग्नमनोरथ यावत् चिन्तामग्न देखा । यह देखकर वह पुण्डरीक राजा के पास गई और उनसे कहने लगी-देवानुप्रिय ! तुम्हारा प्रिय भाई कण्डरीक अनगार अशोकवाटिका में, उत्तम अशोकवृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक पर भग्नमनोरथ होकर यावत् चिन्ता में डूबा बैठा है। तब पुण्डरीक राजा, धाय-माता की यह बात सुनते और समझते ही संभ्रान्त हो उठा । उठकर अन्तःपुर के परिवार के साथ अशोकवाटिका में गया । जाकर यावत् कण्डरीक को तीन बार इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो कि यावत् दीक्षित हो । मैं अधन्य हूँ कि यावत् दीक्षित होने के लिए समर्थ नहीं हो पाता । अत एव देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो यावत् तुमनी मानवीय जन्म और जीवन का सुन्दर फल पाया है। पुंडरीक राजा के द्वारा इस प्रकार कहने पर कण्डरीक चूपचाप रहा । दूसरी बार और तीसरी बार कहने पर भी यावत् मौन ही बना रहा । तब पुण्डरीक राजा ने कंडरीक से पूछा-'भगवन् ! क्या भोगों से प्रयोजन है ?' तब कंडरीक ने कहा-'हाँ, है । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 150

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