Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक दोष होता है, जैसे पारधि के पिंजरे में रहे हुए शब्द को सहन न करता हुआ तीतुर पक्षी वध और बंधन पाता है।
चक्षु इन्द्रिय के वशीभूत और रूपों में अनुरक्त होने वाले पुरुष; स्त्रियों के स्तन, जघन, वदन, हाथ, पैर, नेत्रों में तथा गर्विष्ठ बनी हुई स्त्रियों की विलासयुक्त गति में रमण करते हैं परन्तु चक्षुइन्द्रिय की दुर्दान्तता से इतना दोष है कि बुद्धिहीन पतंगा जलती हुई आग में जा पड़ता है, उसी प्रकार मनुष्य भी वध-बंधन के दुःख पाते हैं।
सुगंध में अनुरक्त हुए और घ्राणेन्द्रिय के वश में पड़े हुए प्राणी श्रेष्ठ अगर, श्रेष्ठ धूप, विविध ऋतुओं में वृद्धि को प्राप्त माल्य तथा अनुलेपन विधि में रमण करते हैं । परन्तु घ्राणेन्द्रिय की दुर्दान्तता से इतना दोष होता है कि औषधि की गंध से सर्प अपने बिल से बाहर नीकल आता है। (और पकडा जाता है।।
रस में आसक्त और जिह्वा इन्द्रिय के वशवर्ती हुए प्राणी कड़वे, तीखे, कसैले, खट्टे एवं रस वाले बहुत खाद्य, पेय, लेहा पदार्थों में आनन्द मानते हैं । किन्त जिह्वा इन्द्रिय का दमन न करने से इतना दोष उत कि गल में लग्न होकर जल से बाहर खींचा हुआ मत्स्य स्थल में फेंका जाकर तड़पता है।
स्पर्शेन्द्रिय के वशीभूत हए प्राणी स्पर्शेन्द्रिय की अधीनता से पीडित होकर विभिन्न ऋतुओं में सेवन करने से सुख उत्पन्न करने वाले तथा विभव सहित, हितकारक तथा मन को सुख देने वाले माला, स्त्री आदि पदार्थों में रमण करते हैं । किन्तु स्पर्शनेन्द्रिय का दमन न करने से इतना दोष होता है कि लोहे का तीखा अंकुश हाथी के मस्तक को पीड़ा पहुँचाता है। सूत्र - १९७-२०१
कल, रिभित एवं मधुर तंत्री, तलताल तथा बाँसुरी के श्रेष्ठ और मनोहर वाद्यों के शब्दों में जो आसक्त नहीं होते, वे वशार्त्तमरण नहीं मरते।
स्त्रियों के स्तन, जघन, मुख, हाथ, पैर, नयन तथा गर्वयुक्त विलास वाली गति आदि समस्त रूपों में जो आसक्त नहीं होते, वे वशार्त्तमरण नहीं मरते ।
उत्तम अगर, श्रेष्ठ धूप, विविध ऋतुओं में वृद्धि को प्राप्त होने वाले पुष्पों की मालाओं तथा श्रीखण्ड आदि के लेपन की गन्ध में जो आसक्त नहीं होते, उन्हें वशार्त्तमरण नहीं मरना पड़ता।
तिक्त, कटुक, कसैले, खट्टे और मीठे खाद्य, पेय और लेह्य पदार्थों के आस्वादन में जो गृद्ध नहीं होते, वे वशार्त्तमरण नहीं मरते ।
हेमन्त आदि विभिन्न ऋतुओं में सेवन करने से सुख देने वाले, वैभव सहित, हितकर और मन को आनन्द देने वाले स्पर्शों में जो गद्ध नहीं होते, वे वशार्त्तमरण नहीं मरते । सूत्र - २०२-२०६
साधु को भद्र श्रोत्र के विषय शब्द प्राप्त होने पर कभी तुष्ट नहीं होना चाहिए और पापक शब्द सूनने पर रुष्ट नहीं होना चाहिए।
शुभ या अशुभ रूप चक्षु के विषय होने पर-साधु को कभी न तुष्ट होना चाहिए और न रुष्ट होना चाहिए। घ्राण-इन्द्रिय को प्राप्त हए शुभ अथवा अशुभ गंध में साधु को कभी तुष्ट अथवा रुष्ट नहीं होना चाहिए। जिह्वा-इन्द्रिय के विषय को प्राप्त शुभ याअशुभ रसों में साधु को कभी तुष्ट अथवा रुष्ट नहीं होना चाहिए ।
स्पर्शनेन्द्रिय के विषय बने हुए प्राप्त शुभ या अशुभ स्पर्शों में साधु को कभी तुष्ट या रुष्ट नहीं होना चाहिए सूत्र - २०७
जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने सत्रहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है । वही मैं तुझसे कहता हूँ।
अध्ययन-१७ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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