Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 142
________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक बिछाकर वे मूक होकर छिप गए। जहाँ-जहाँ वे अश्व बैठते थे, सोते थे, खड़े होते थे अथवा लेटते थे, वहाँ-वहाँ कौटुम्बिक पुरुषों ने गुड़ के यावत् अन्य बहुत-से जिह्वेन्द्रिय के योग्य पदार्थों के पूंज और नीकर कर दिये । उन जगहों पर गड़हे खोद कर गुड़ का पानी, खांड का पानी, पोर का पानी तथा दूसरा बहुत तरह का पानी उन गड़हों में भर दिया । भरकर उनके पास चारों ओर जाल स्थापित करके मूक होकर छिप रहे । जहाँ-जहाँ वे घोड़े बैठते थे, यावत् लेटते थे, वहाँ-वहाँ कोयवक यावत् शिलापट्टक तथा अन्य स्पर्शनेन्द्रिय के योग्य आस्तरण-प्रत्यास्तरण । रखकर उनके पास चारों ओर जाल बिछाकर एवं मूक होकर छिप गए। तत्पश्चात् वे अश्व वहाँ आए, जहाँ यह उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध रखी थीं। वहाँ आकर उनमें से कोई-कोई अश्न 'ये शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध अपर्व हैं, ऐसा विचार कर उन उत्कष्ट शब्द, और गंध में मूर्च्छित, गृद्ध, आसक्त न होकर उन उत्कृष्ट शब्द यावत् गंध से गोचर प्राप्त करके तथा प्रचुर घास-पानी पीकर निर्भय हुए, उद्वेग रहित हुए और सुखे-सुखे विचरने लगे। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु या साध्वी शब्द, स्पर्श, रस, रूप, और गंध में आसक्त नहीं होता, वह इस लोक में बहुत साधुओं, साध्वीयों, श्रावकों और श्राविकाओं का पूजनीय होता है और इस चातुर्गतिक संसारकान्तार को पार कर जाता है। सूत्र - १८६ उन घोड़ों में से कितनेक घोड़े जहाँ वे उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध थे, वहाँ पहुँचे । वे उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में मूर्च्छित हुए, अति आसक्त हो गए और उनका सेवन करने में प्रवृत्त हो गए । उस उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का सेवन करने वाले वे अश्व कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बहुत से कूट पाशों से गले में यावत् पैरों में बाँधे गए । उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उन अश्वों को पकड़ लिया । वे नौकाओं द्वारा पोतवहन में ले आए । लाकर पोतवहन को तृण, काष्ठ आदि आवश्यक पदार्थों से भर लिया । वे सांयात्रिक नौकावणिक दक्षिण दिशा के अनुकूल पवन द्वारा जहाँ गम्भीर पोतपट्टन था, वहाँ आए । पोतवहन का लंगर डाला । उन घोड़ों को उतारा । हस्तिशीर्ष नगर था और जहाँ कनककेतु राजा था, वहाँ पहँचे । दोनों हाथ जोड़कर राजा का अभिनन्दन करके वे अश्व उपस्थित किए । राजा कनककेतु ने उन सांयात्रिक वणिकों का शुल्क माफ कर दिया । उनका सत्कार-सम्मान किया और उन्हें बिदा किया। तत्पश्चात् कनककेतु राजा ने कालिक-द्वीप भेजे हुए कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर उनका भी सत्कार-सम्मान किया और फिर उन्हें बिदा कर दिया । तत्पश्चात् कनककेतु राजा ने अश्वमर्दकों को बुलाया और उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! तुम मेरे अश्वों को विनीत करो ।' तब अश्वमर्दकों ने बहुत अच्छा' कहकर राजा का आदेश स्वीकार किया । उन्होंने उन अश्वों को मुख बाँधकर, कान बाँधकर, नाक बाँधकर, झौंरा बाँधकर, खुर बाँधकर, कटक बाँधकर, चौकड़ी चढ़ाकर, तोबरा चढ़ाकर, पटतानक लगा कर, खस्सी करके, वेलाप्रहार करके, बेंतों का प्रहार करके विनीत किया । विनीत करके वे राजा कनककेतु के पास ले आए। तत्पश्चात् कनककेतु ने उन अश्वमर्दकों का सत्कार किया, सम्मान किया । उन्हें बिदा किया । उसके बाद वे अश्व-मुखबंधन से यावत् चमड़े के चाबुकों के प्रहार से बहुत शारीरिक और मानसिक दुःखों को प्राप्त हुए । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी दीक्षित होकर प्रिय शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में गद्ध होता है, मुग्ध होता है और आसक्त होता है, वह इसी लोक में बहुत से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों तथा श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र होता है, चातुर्गतिक संसारअटवी में पुनः पुनः भ्रमण करता है। सूत्र - १८७-१९६ श्रुतिसुखद स्वरघोलना के प्रकारवाले, मधुर वीणा, तलताल, बाँसूरी के श्रेष्ठ और मनोहर वाद्यों के शब्दों में अनुरक्त होने और श्रोत्रेन्द्रिय के वशवर्ती बने हुए प्राणी आनन्द मानते हैं । किन्तु श्रोत्रेन्द्रिय की दुर्दान्तता का इतना मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 142

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