Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 118
________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक । तत्पश्चात् श्रमण निर्ग्रथों ने अपने गुरु का आदेश अंगीकार किया । वे धर्मघोष स्थविर के पास से बाहर नीकले । सब ओर धर्मरुचि अनगार की मार्गणा करते हुए जहाँ स्थंडिलभूमि थी वहाँ आए । देखा-धर्मरुचि अनगार का शरीर निष्प्राण, निश्चेष्ट और निर्जीव पड़ा है । उनके मुख से सहसा नीकल पड़ा-'हा हा ! अहो ! यह अकार्य हुआ। इस प्रकार कहकर उन्होंने धर्मरुचि अनगार का परिनिर्वाण होने सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया और आचारभांडक ग्रहण किये और धर्मघोष स्थविर के निकट पहुँचे । गमनागमन का प्रतिक्रमण किया । प्रतिक्रमण करके बोले-आपका आदेश पा करके हम आपके पास से नीकले थे । सुभूमिभाग उद्यान के चारों तरफ धर्मरुचि अनगार की यावत् सभी ओर मार्गणा करते हुए स्थंडिलभूमि में गए । यावत् जल्दी ही यहाँ लौट आए हैं । भगवन् ! धर्मरुचि अनगार कालधर्म को प्राप्त हो गए हैं । यह उनके आचार-भांड हैं।' स्थविर धर्मघोष ने पूर्वश्रत में उपयोग लगाया । उपयोग लगाकर श्रमण निर्ग्रन्थों को और निर्ग्रन्थियों को लाकर उनसे कहा-'हे आर्यो ! निश्चय ही मेरा अन्तेवासी धर्मरुचि नामक अनगार स्वभाव से भद्र यावत विनीत था। वह मासखमण की तपस्या कर रहा था । यावत वह नागश्री ब्राह्मणी के घर पारणक-भिक्षा के लिए गया । तब नागश्री ब्राह्मणी ने उसके पात्र में सब-का-सब कटक, विष-सदृश तूंबे का शाक उंडेल दिया । तब धर्मरुचि अनगार अपने लिए पर्याप्त आहार जानकर यावत् काल की आकांक्षा न करते हुए विचरने लगे । धर्मरुचि अनगार बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय पालकर, आलोचना-प्रतिक्रमण करके समाधि में लीन होकर माल-मास में काल करके, ऊपर सौधर्म आदि देवलोकों को लाँघकर, यावत् सर्वार्थसिद्ध नामक महाविमान में देवरूप से उत्पन्न हुए हैं । वहाँ जघन्य-उत्कृष्ट भेद से रहित एक ही समान सब देवों की तैंतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है । धर्मरुचि देव की भी तैंतीस सागरोपम की स्थिति हुई । वह उस सर्वार्थसिद्ध देवलोक से आयु, स्थिति और भव का क्षय होने पर च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्धि प्राप्त करेगा। सूत्र-१६० तो हे आर्यो ! उस अधन्य अपुण्य, यावत् निंबोली समान कटुक नागश्री ब्राह्मणी को धिक्कार है, जिसने तथारूप साधु धर्मरुचि अनगार को मासखमण के पारणकमें यावत् तेल से व्याप्त कटुक, विषाक्त तूंबे का शाक देकर असमयमें ही मार डाला ।' तत्पश्चात् उस निर्ग्रन्थ श्रमणोंने धर्मघोष स्थविर के पास वह वृत्तान्त सूनकर और समझकर चम्पानगरी के शृंगाटक, त्रिक, चौक, चत्वर, चतुर्मुख राजमार्ग, गली आदि मार्गों में जाकर यावत् बहुत लोगों से इस प्रकार कहा- धिक्कार है उन यावत् निंबोली समान कटुक नागश्री ब्राह्मणी को; जिसने उस प्रकार के साधु और साधु रूपधारी मासखमण का तप करनेवाले धर्मरुचि अनगार को शरद सम्बन्धी यावत् विष सदृश कटुक शाक देकर मार डाला। तब उस श्रमणों से इस वृत्तान्त को सूनकर बहुत-से लोग आपस में इस प्रकार कहने लगे और बातचीत करने लगे- धिक्कार है उस नागश्री ब्राह्मणी को, जिसने यावत् मुनि को मार डाला ।' तत्पश्चात् वे सोम, सोमदत्त और सोमभूति ब्राह्मण, चम्पा नगरी में बहुत-से लोगों से यह वृत्तान्त सूनकर और समझकर, कुपित हुए यावत् और मिसमिसाने लगे । वे वहीं जा पहुँचे जहाँ नागश्री थी । उन्होंने वहाँ जाकर नागश्री से इस प्रकार कहा-'अरी नागश्री ! अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाली ! दुष्ट और अशुभ लक्षणों वाली ! निकृष्ट कृष्णा चतुर्दशी में जन्मी हुई ! अधन्य, अपुण्य, भाग्यहीने ! अभागिनी ! अतीव दुर्भागिनी ! निंबोली के समान कटुक ! तुझे धिक्कार है; जिसने तथारूप साधु को मासखमण के पारणक में शरद सम्बन्धी यावत् विषैला शाक वहरा कर मार डाला!' इस प्रकार कहकर उन ब्राह्मणों ने ऊंचे-नीचे आक्रोश वचन कहकर आक्रोश किया, ऊंचे-नीचे उद्वंसता वचन कहकर उद्वंसता की, ऊंचे-नीचे भर्त्सना वचन कहकर भर्त्सना की तथा ऊंचे-नीचे निश्छोटन वचन कहकर निश्छोटना की, 'हे पापिनी ! तुझे पाप का फल भुगतना पड़ेगा' इत्यादि वचनों से तर्जना की और थप्पड़ आदि मार-मार कर ताड़ना की । तर्जना और ताड़ना करके उसे घर से नीकाल दिया। ___ तत्पश्चात् वह नागश्री अपने घर से नीकली हुई चम्पा नगरी में शृंगाटकों में, त्रिक में, चतुष्क में, चत्वरों तथा चतुर्मुख में, बहुत जनों द्वारा अवहेलना की पात्र होती हुई, कुत्सा की जाती हुई, निन्दा और गर्दा की जाती हुई, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 118

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