Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 120
________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और पूछा-देवानुप्रियो ! वह किसकी लड़की है ? उसका नाम क्या है ? जिनदत्त सार्थवाह के ऐसा कहने पर वे कौटुम्बिक पुरुष हर्षित और सन्तुष्ट हुए । उन्होंने हाथ जोड़कर इस प्रकार उत्तर दिया-'देवानुप्रिय ! यह सागरदत्त सार्थवाह की पुत्री, भद्रा की आत्मजा सुकुमालिका नामक लड़की है । सुकुमार हाथ-पैर आदि अवयवों वाली यावत् उत्कृष्ट शरीर वाली है।' जिनदत्त सार्थवाह उन कौटुम्बिक पुरुषों से इस अर्थ को सूनकर अपने घर चला गया । फिर नहा-धोकर तथा मित्रजनों एवं ज्ञातिजनों आदि से परिवृत्त होकर चम्पा नगरी के मध्यभाग में होकर सागरदत्त के घर था । तब सागरदत्त सार्थवाह ने जिनदत्त सार्थवाह को आता देखा । वह आसन से उठ खड़ा हुआ । उठकर उसने जिनदत्त को आसन ग्रहण करने के लिए निमंत्रित किया । विश्रान्त एवं विश्वस्त हुए तथा सुखद आसन पर आसीन हुए जिनदत्त से पूछा-'कहिए देवानुप्रिय ! आपके आगमन का क्या प्रयोजन है ?' तब जिनदत्त सार्थवाह ने सागरदत्त से कहा- देवानप्रिय ! मैं आपकी पत्री, भद्रा सार्थवाही की आत्मजा सकमालिका की सागरदत्त की पत्नी के रूप में मंगनी करता हूँ । देवानुप्रिय ! अगर आप यह युक्त समझें, पात्र समझें, श्लाघनीय समझें और यह समझें कि यह संयोग समान है, तो सुकुमालिका सागरदत्त को दीजिए । अगर आप यह संयोग इष्ट समझते हैं तो देवानुप्रिय ! सुकुमालिका के लिए क्या शुल्क दें ?' उत्तर में सागरदत्त ने जिनदत्त से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! सुकुमालिका पुत्री हमारी इकलौती सन्तती है, हमें प्रिय है। उसका नाम सूनने से भी हमें हर्ष होता है तो देखने की तो बात ही क्या है ? अत एव देवानुप्रिय ! मैं क्षणभर के लिए भी सुकुमालिका का वियोग नहीं चाहता । देवानुप्रिय ! यदि सागर हमारा गृह-जामाता बन जाए तो मैं सागरदारक को सुकुमालिका दे दूँ ।' तत्पश्चात् जिनदत्त सार्थवाह, सागरदत्त सार्थवाह के इस प्रकार कहने पर अपने घर गया । घर जाकर सागर नामक अपने पुत्र को बुलाया और उससे कहा-' हे पुत्र ! सागरदत्त सार्थवाह ने मुझसे ऐसा कहा है-' हे देवानुप्रिय ! सुकुमालिका लड़की मेरी प्रिय है, इत्यादि सो यदि सागर मेरा गृहजामाता बन जाए तो मैं अपनी लड़की हूँ।' जिनदत्त सार्थवाह के ऐसा कहने पर सागर पुत्र मौन रहा । तत्पश्चात् एक बार किसी समय शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में जिनदत्त सार्थवाह ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवाया । तैयार कर मित्रों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धीयों तथा परिजनों को आमंत्रित किया, यावत् जिमाने के पश्चात् सम्मानित किया। फिर सागर पुत्र को नहला-धूला कर यावत् सब अलंकारों से विभूषित किया । पुरुहसहस्त्रवाहिनी पालकी पर आरूढ़ किया, आरूढ़ करके मित्रों एवं ज्ञातिजनों आदि से परिवृत्त होकर यावत् पूरे ठाठ के साथ अपने घर से नीकला | चम्पा नगरी के मध्य भाग में होकर जहाँ सागरदत्त के घर पहुँच कर सागर पुत्र को पालकी से नीचे ऊतारा । फिर उसे सागरदत्त सार्थवाह के समीप ले गया। तत्पश्चात् सागरदत्त सार्थवाह ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य भोजन तैयार करवाया । यावत् उनका सम्मान करके सागरपुत्र को सुकुमालिका पुत्री के साथ पाट पर बिठा कर चाँदी और सोने के कलशों से स्नान करवाया । होम करवाया । होम के बाद सागर पुत्र को सुकुमालिका पुत्री का पाणिग्रहण करवाया । उस समय सागर पुत्र को सुकुमालिका पुत्री के हाथ का स्पर्श ऐसा प्रतीत हुआ मानो कोई तलवार हो अथवा यावत् मुर्मुर आग हो । इतना ही नहीं बल्कि इससे भी अधिक अनिष्ट हस्त-स्पर्श का वह अनुभव करने लगा। किन्तु उस समय वह सागर बिना ईच्छा के विवश होकर उस हस्तस्पर्श का अनुभव करता हआ मुहर्त्तमात्र बैठा रहा । सागरदत्त सार्थवाह ने सागरपुत्र के माता-पिता को तथा मित्रों, ज्ञातिजनों, आत्मीय जनों, स्वजनों, सम्बन्धीयों तथा परिजनों को विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन से तथा पुष्प, वस्त्र से सम्मानित करके बिदा किया। सागरपुत्र सुकुमालिका के साथ जहाँ वासगृह था, वहाँ आया । आकर सुकुमालिका के साथ शय्या पर सोया । सूत्र - १६३ उस समय सागरपुत्र ने सुकुमालिका के इस प्रकार के अंगस्पर्श को ऐसा अनुभव किया जैसे कोई तलवार हो, इत्यादि । वह अत्यन्त ही अमनोज्ञ अंगस्पर्श का अनुभव करता रहा । सागरपुत्र उस अंगस्पर्श को सहन न कर मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 120

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