Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक समुद्र के मध्यभाग में होकर जाते हुए कृष्ण वासुदेव के श्वेत एवं पीत ध्वजा के अग्रभाग को देख सकोगे ।' तत्पश्चात् कपिल वासुदेव ने मुनिसुव्रत तीर्थंकर को वन्दन और नमस्कार किया । वह हाथी के स्कंध पर आरूढ़ हुए। जल्दी-जल्दी जहाँ वेलाकूल था, वहाँ आए । वहाँ आकर लवणसमुद्र के मध्य में होकर जाते हुए कृष्ण वासुदेव की श्वेत-पीत ध्वजा का अग्रभाग देखा । 'यह मेरे समान पुरुष है, यह पुरुषोत्तम कृष्ण वासुदेव हैं, लवणसमुद्र के मध्य में होकर जा रहे हैं । ऐसा कहकर कपिल वासुदेव ने अपना पाञ्चजन्य शंख हाथ में लिया और उसे अपने मुख की वायु से पूरित किया-फूंका ।
तब कृष्ण वासुदेव ने कपिल वासुदेव के शंख का शब्द सूना । उन्होंने भी अपने पाञ्चजन्य को यावत् मुख की वायु से पूरित किया । उस समय दोनों वासुदेवों ने शंख की समाचारी की । तत्पश्चात् कपिल वासुदेव जहाँ अमरकंका राजधानी थी, वहाँ आए । आकर उन्होंने देखा कि अमरकंका के तोरण आदि टूट-फूट गए हैं । यह देखकर उन्होंने पद्मनाभ से पूछा-'देवानुप्रिय ! अमरकंका के तोरण आदि भग्न होकर क्यों पड़ गए हैं ?' तब पद्मनाभ ने कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा-'स्वामिन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप से, भारतवर्ष से, यहाँ एकदम आकर कृष्ण वासुदेव ने, आपका पराभव करके, आपका अपमान करके, अमरकंका को यावत गिरा दिया है। तत्पश्चात् कपिल वासुदेव, पद्मनाभ से उत्तर सूनकर पद्मनाभ से बोले-'अरे पद्मनाभ ! अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाले ! क्या तू नहीं जानता कि तूने मेरे समान पुरुष कृष्ण वासुदेव का अनिष्ट किया है ?' इस प्रकार कहकर वह क्रुद्ध हए, यावत् पद्मनाभ को देश-निर्वासन की आज्ञा दे दी। पद्मनाभ के पत्र को अमरकंका राजधानी में महान राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया । यावत् कपिल वासुदेव वापिस चले गए। सूत्र-१७८
इधर कृष्ण वासुदेव लवणसमुद्र के मध्य भाग से जाते हए गंगा नदी के पास आए । तब उन्होंने पाँच पाण्डवों से कहा- देवानप्रियो ! तम लोग जाओ । जब तक गंगा महानदी को उतरो, तब तक मैं ल अधिपति सुस्थित देव से मिल लेता हूँ। तब वे पाँचों पाण्डव, कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए । आकर एक नौका की खोज की। खोज कर उस नौका से गंगा महानदी उतरे । परस्पर इस प्रकार कहने लगे-'देवानुप्रिय ! कृष्ण वासुदेव गंगा महानदी को अपनी भुजाओं से पार करने में समर्थ हैं अथवा नहीं हैं ? ऐसा कहकर उन्होंने वह नौका छिपा दी । छिपाकर कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा करते हुए स्थित रहे । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव लवणाधिपति सुस्थित देव से मिले । मिलकर जहाँ गंगा महानदी थी वहाँ आए । उन्होंने सब तरफ नौका की खोज की, पर खोज करने पर भी नौका दिखाई नहीं दी । तब उन्होंने अपनी एक भुजा से अश्व और सारथि सहित रथ ग्रहण किया और दूसरी भुजा से बासठ योजन और आधा योजन अर्थात् साढ़े बासठ योजन विस्तार वाली गंगा महानदी को पार करने के लिए उद्यत हए । कृष्ण वासुदेव जब गंगा महानदी के बीचोंबीच पहुँचे तो थक गए, नौका की ईच्छा करने लगे और बहुत खेदयुक्त हो गए। उन्हें पसीना आ गया।
उस समय कृष्ण वासुदेव को इस प्रकार का विचार आया कि-' अहा ! पाँच पाण्डव बड़े बलवान् हैं, जिन्होंने साढ़े बासठ योजन विस्तार वाली गंगा महानदी अपने बाहुओं से पार कर ली ! पाँच पाण्डवों ने ईच्छा करके पद्मनाभ राजा को पराजित नहीं किया ।' तब गंगा देवी ने कृष्ण वासुदेव का ऐसा अध्यवसाय यावत् मनोगत संकल्प जानकर थाह दे दी। उस समय कृष्ण वासुदेव ने थोड़ी देर विश्राम किया । विश्राम लेने के बाद साढ़े बासठ योजन विस्तृत गंगा महानदी पार की । पार करके पाँच पाण्डवों के पास पहँचे । वहाँ पहँचकर पाँच पाण्डवों से बोले-'अहो देवानुप्रियो ! तुम लोग महाबलवान् हो, क्योंकि तुमने साढ़े बासठ योजन विस्तार वाली गंगा महानदी अपने बाहुबल से पार की है । तब तो तुम लोगोंने चाहकर ही पद्मनाभ को पराजित नहीं किया। तब कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर पाँच पाण्डवों ने कृष्ण वासुदेव से कहा-'देवानुप्रिय ! आपके द्वारा विसर्जित होकर हम लोग जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए । वहाँ आकर हमने नौका की खोज की । उस नौका से पार पहुंचकर आपके बल की परीक्षा करने के लिए हमने नौका छिपा दी। फिर आपकी प्रतीक्षा करते हुए हम यहाँ ठहरे हैं।'
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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