Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 122
________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक रहा था । उस समय सागरदत्त ने एक अत्यन्त दीन भिखारी पुरुष को देखा । वह साँधे हुए टुकड़ों का वस्त्र पहने था। उसके साथ में सिकोरे का टुकड़ा और पानी के घड़े का टुकड़ा था । उसके बाल बिखरे हुए-अस्तव्यस्त थे। हजारों मक्खियाँ उसके मार्ग का अनुसरण कर रही थीं। तत्पश्चात् सागरदत्त ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और उस द्रमक पुरुष को विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का लोभ देकर घर के भीतर लाओ । सिकोरे और घड़े के टुकड़े को एक तरफ फैंक दो । आलंकारिक कर्म कराओ । फिर स्नान करवाकर, बलिकर्म करवाकर, यावत् सर्व अलंकारों से विभूषित करो । फिर मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य भोजन जिमाओ । भोजन जिमाकर मेरे निकट ले आना।' तब उन कौटुम्बिक पुरुषों ने सागरदत्त की आज्ञा अंगीकार की । वे उस भिखारी पुरुष के पास गए । जाकर उस भिखारी को अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन का प्रलोभन देकर उसे अपने घर में ले आए। लाकर उसके सिकोरे के टकडे को तथा घडे के ठीकरे को एक तरफ डाल दिया। सिकोरे का टकडा और घडे का टुकड़ा एक जगह डाल देने पर वह भिखारी जोर-जोर से आवाज करके रोने-चिल्लाने लगा। तत्पश्चात् सागरदत्त ने उस भिखारी पुरुष के ऊंचे स्वर से चिल्लाने का शब्द सूनकर और समझकर कौटुम्बिक पुरुषों को कहा-'देवानुप्रियो ! यह भिखारी पुरुष क्यों जोर-जोर से चिल्ला रहा है ?' तब कौटुम्बिक पुरुषों ने कहा-'स्वामिन् ! उस सिकोरे के टुकड़े और घट के ठीकरे को एक ओर डाल देने के कारण ।' तब सागरदत्त सार्थवाह ने उन कौटुम्बिक पुरुषों से कहा-'देवानुप्रियो ! तुम उस भिखारी के उस सिकोरे और घड़े के खंड को एक ओर मत डालो, उसके पास रख दो, जिससे उसे प्रतीत हो ।' यह सूनकर उन्होंने वे टुकड़े उसके पास रख दिए । तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उस भिखारी का अलंकारकर्म करवाया । फिर शतपाक और सहस्रपाक तेल से अभ्यंगन किया । सुवासित गंधद्रव्य से उसके शरीर का उबटन किया । फिर उष्णोदक, गंधोदक और शीतोदक से स्नान कराया । बारीक और सुकोमल गंधकाषाय वस्त्र से शरीर पौंछा । फिर हंसलक्षण वस्त्र पहनाया। सर्व अलंकारों से विभूषित किया । विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन करवाया । भोजन के बाद उसे सागरदत्त के समीप ले गए । तत्पश्चात् सागरदत्त ने सुकुमालिका दारिका को स्नान कराकर यावत् समस्त अलंकारों से अलंकृत करके, उस भिखारी पुरुष से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय ! यह मेरी पुत्री मुझे इष्ट है । इसे मैं तुम्हारी भार्या के रूप में देता हूँ। तुम इस कल्याणकारिणी के लिए कल्याणकारी होना । उस द्रमक पुरुष ने सागरदत्त की यह बात स्वीकार कर ली । सुकुमालिका दारिका के साथ वासगृह में प्रविष्ट हुआ और सुकुमालिका दारिका के साथ एक शय्या में सोया । उस समय उस द्रमक पुरुष ने सुकुमालिका के अंगस्पर्श को उसी प्रकार अनुभव किया । यावत् वह शय्या से उठकर शयनागार से बाहर नीकला । अपना वही सिकोरे का टुकड़ा और घड़े का टुकड़ा ले करके जिधर से आया था, उधर ही ऐसा चला गया मानो कसाईखाने से मुक्त हुआ हो या मरने वाले पुरुष से छूटकारा पाकर काक भागा हो । 'वह द्रमक पुरुष चल दिया ।' यह सोचकर सुकुमालिका भग्नमनोरथ होकर यावत् चिन्ता करने लगी। सूत्र - १६५ तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने दूसरे दिन प्रभात होने पर दासचेटी को बुलाया । पूर्ववत् कहा-तब सागरदत्त उसी प्रकार संभ्रान्त होकर वासगृह में आया । सुकुमालिका को गोद में बिठाकर कहने लगा-'हे पुत्री ! तू पूर्वजन्म में किए हिंसा आदि दुष्कृत्यों द्वारा उपार्जित पापकर्मों का फल भोग रही है । अत एव बेटी ! भग्नमनोरथ होकर यावत चिन्ता मत कर । हे पत्री ! मेरी भोजनशाला में तैयार हए विपल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आहार को (पोट्टिला की तरह) यावत् श्रमणों आदि को देती हुई रह । तब सुकुमालिका दारिका ने यह बात स्वीकार की। स्वीकार करके भोजनशाला में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आहार देती-दिलाती हुई रहने लगी । उस काल और उस समय में गोपालिका नामक बहुश्रुत आर्या, जैसे तेतलिपुत्र नामक अध्ययन में सुव्रता साध्वी के विषय में कहा है, उसी प्रकार पधारी । उनके संघाड़े ने यावत् सुकुमालिका के घर में प्रवेश किया । सुकुमालिका ने मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 122

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