Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक तब नागश्री ब्राह्मणी ने धर्मरुचि अनगार को आते देखा । वह उस बहुत-से मसालों वाले और तेल से युक्त तूंबे के शाक को नीकाल देने का योग्य अवसर जानकर हृष्ट-तुष्ट हुई और खड़ी हई। भोजनगृह में गई। उसने वह तिक्त और कडुवा बहुत तेल वाला सब-का-सब शाक धर्मरुचि अनगार के पात्र में डाल दिया । धर्मरुचि अनगार 'आहार पर्याप्त है। ऐसा जानकर नागश्री ब्राह्मणी के घर से बाहर नीकले । चम्पा नगरी के बीचोंबीच होकर सुभूमिभाग उद्यान में आए । उन्होंने धर्मघोष स्थविर के समीप ईयापथ का प्रतिक्रमण करके अन्न-पानी का प्रतिलेखन किया । हाथ में अन्न-पानी लेकर स्थविर गुरु को दिखलाया । उस समय धर्मघोष स्थविर ने, उस शरदऋतु सम्बन्धी तेल से व्याप्त शाक की गंध से उद्विग्न होकर-पराभव को प्राप्त होकर, उस तेल से व्याप्त खास में से एक बूंद तेल हाथ में ली, और चखा । तब उसे तिक्त, खारा, कड़वा, अखाद्य, अभोज्य और विष के समान जानकर धर्मरुचि अनगार से कहा- देवानुप्रिय ! यदि तुम यह तेल वाला तूंबे का खास खाओगे तो तुम असमय में ही जीवन से रहित हो जाओगे, अत एव हे देवानप्रिय ! तुम इसको मत खाना। ऐसा न हो कि असमय में ही जाएं । अत एव हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ और यह तूंबे का शाक एकान्त, आवागमन से रहित, अचित्त भूमि में परठ दो। दूसरा प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ग्रहण करके उसका आहार करो।
तत्पश्चात् धर्मघोष स्थविर ने ऐसा कहने पर धर्मरुचि अनगार धर्मघोष स्थविर के पास से नीकले । सुभूमिभाग उद्यान से न अधिक दूर न अधिक समीप उन्होंने स्थंडिल (भूभाग) की प्रतिलेखना करके उस तूंबे के शाक की बूंद ली और उस भूभाग में डाली । तत्पश्चात् उस शरदऋतु सम्बन्धी तिक्त, कटुक और तेल से व्याप्त शाक की गंध से बहुत-हजारों किड़ियाँ वहाँ आ गईं । उनमें से जिस कीड़ी ने जैसे ही शाक खाया, वैसे ही वह असमय में ही मृत्यु को प्राप्त हुई । तब धर्मरुचि अनगार के मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-यदि इस शाक का एक बिन्दु डालने पर अनेक हजार कीड़ियाँ मर गईं, तो यदि मैं सबका सब यह शाक भूमि पर डाल दूंगा तो यह बहुत-से प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के वध का कारण होगा । अत एव इस शाक को स्वयं ही खा जाना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा । यह शाक इसी शरीर से ही समाप्त हो जाए । अनगार ने ऐसा विचार करके मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना की । मस्तक सहित ऊपर शरीर का प्रमार्जन किया । प्रमार्जन करके वह शाक स्वयं ही, आस्वादन किए बिना अपने शरीर के कोठे में डाल लिया । जैसे सर्प सीधा ही बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार वह आहार सीधा उनके उदर में चला गया। शरद सम्बन्धी तूंबे का यावत् तेलवाला शाक खाने पर धर्मरुचि अनगार के शरीरमें, एक मुहूर्तमें ही उसका
शरीरमें वेदना उत्पन्न हो गई । वह वेदना उत्कट यावत् दुस्सह थी । शाक पेटमें डाल लेने के पश्चात धर्मरुचि अनगार स्थामरहित, बलहीन, वीर्यरहित तथा पुरुषकार पराक्रम से हीन हो गए । 'अब धारण नहीं किया जा सकता' ऐसा जानकर उन्होंने आचार के भाण्ड-पात्र एक जगह रख दिए । रखकर स्थंडील का प्रतिलेखन किया । प्रतिलेखन करके दर्भ संथारा बिछाया, उस पर आसीन हो गए । पूर्व दिशा की ओर मुख करके पर्यक आसन से बैठकर, दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर आवर्तन करके, अंजलि करके इस प्रकार कहा
अरिहंतों यावत् सिद्धिगति को प्राप्त भगवंतों को नमस्कार हो । मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक धर्मघोष स्थविर को नमस्कार हो । पहले भी मैंने धर्मघोष स्थविर के पास सम्पूर्ण प्राणातिपात का जीवन पर्यन्त के लिए प्रत्याख्यान किया था, यावत् परिग्रह का भी, इस समय भी मैं उन्हीं भगवंतों के समीप सम्पूर्ण प्राणातिपात यावत् सम्पूर्ण परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूँ, जीवन-पर्यन्त के लिए । स्कंदक मुनि समान यहाँ जानना । यावत् अन्तिम श्वासोच्छ्वास के साथ अपने इस शरीर का भी परित्याग करता हूँ । इस प्रकार कहकर आलोचना और प्रतिक्रमण करके, समाधि के साथ मृत्यु को प्राप्त हुए । धर्मघोष स्थविर ने धर्मरुचि अनगार को चिरकाल से गया जानकर निर्ग्रन्थ श्रमणों को बुलाया । उनसे कहा- देवानुप्रियो ! धर्मरुचि अनगार को मासखमण के पारणक में यावत् तेल वाला कटुक तूंबे का शाक मिला था । उसे परठने के लिए वह बाहर गए थे । बहुत समय हो चूका है । अत एव देवानुप्रिय ! तुम जाओ और धर्मरुचि अनगार की सब ओर मार्गणा-गवेषणा करो।'
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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