Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक तुम्हें अद्भुत या अनेक प्रकार के केवलिप्ररूपित धर्म का भलीभाँति उपदेश दे सकती हैं। तत्पश्चात् पोटिला ने उन आर्याओं से कहा-हे आर्याओ ! मैं आपके पास से केवलिप्ररूपित धर्म सूनना चाहती हूँ । तब उन आर्याओं ने पोट्टिला को अद्भुत या अनेक प्रकार के धर्म का उपदेश दिया । पोट्टिला धर्म का उपदेश सूनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट होकर इस प्रकार बोली-'आर्याओं ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ । जैसा आपने कहा, वह वैसा ही है । अत एव मैं आपके पास से पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत वाले श्रावक के धर्म को अंगीकार करना चाहती हूँ।' तब आर्याओं ने कहा-'देवानुप्रिये ! जैसे सुख उपजे, वैसा करो ।'
तत्पश्चात उस पोट्रिलाने उन आर्याओं से पाँच अणव्रत, सात शिक्षाव्रतवाला केवलिप्ररूपित धर्म अंगीकार किया । उन आर्याओंको वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार करके उन्हें बिदा किया । तत्पश्चात् पोट्टिला श्रमणोपासिका हो गई, यावत् साधु-साध्वीयों को प्रासुक-अचित्त, एषणीय-आधाकर्मादि दोषों से रहित-कल्पनीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम तथा वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन, औषध, भेषज एवं प्रातिहारिक-वापिस लौटा देने के योग्य पीढा, पाट, शय्या-उपाश्रय और संस्तारक-बिछाने के लिए घास आदि प्रदान करती हई विचरने लगी। सूत्र - १५२
एक बार किसी समय, मध्य रात्रि में जब वह कुटुम्ब के विषय में चिन्ता करती जाग रही थी, तब उसे विचार उत्पन्न हुआ-'मैं पहले तेतलिपुत्र को इष्ट थी, अब अनिष्ट हो गई हूँ; यावत् दर्शन और परिभोग का तो कहना ही क्या है ? अत एव मेरे लिए सुव्रता आर्या के निकट दीक्षा ग्रहण करना ही श्रेयस्कर है ।' पोट्टिला दूसरे दिन प्रभात होने पर वह तेतलिपुत्र के पास गई । जाकर दोनों हाथ जोड़कर बोली-देवानुप्रिय ! मैंने सुव्रता आर्या से धर्म सूना है, वह धर्म मुझे इष्ट, अतीव इष्ट है और रुचिकर लगा है, अतः आपकी आज्ञा पाकर मैं प्रव्रज्या अंगीक करना चाहती हूँ। तब तेतलिपुत्र ने पोट्टिला से कहा-'देवानुप्रिये ! तुम मुण्डित और प्रव्रजित होकर मृत्यु के समय काल किसी भी देवलोक में देव रूप से उत्पन्न होओगी, सो यदि तुम उस देवलोक से आकर मुझे केवलिप्ररूपित धर्म का प्रतिबोध प्रदान करो तो मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ। अगर मुझे प्रतिबोध न दो तो मैं आज्ञा नहीं देता । तब पोट्टिला ने तेतलिपुत्र के अर्थ-कथन का स्वीकार कर लिया।
तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार बनवाया । मित्रों, ज्ञातिजनों आदि को आमंत्रित किया । उनका यथोचित सत्कार-सम्मान किया । पोटिला को स्नान कराया और हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिबिका पर आरूढ़ करा कर मित्रों तथा ज्ञातिजनों आदि से परिवृत्त होकर, समस्त ऋद्धि-लवाजमें के साथ यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ तेतलिपुत्र के मध्य में होकर सुव्रता साध्वी के उपाश्रय में आया । वहाँ आकर सुव्रता आर्या को वन्दना की, नमस्कार किया । इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिये ! यह मेरी पोट्टिला भार्या मुझे इष्ट है । यह संसार के भय से उद्वेग को प्राप्त हुई है, यावत् दीक्षा अंगीकार करना चाहती है । सो देवानुप्रिये ! मैं आपको शिष्यारूप भिक्षा देता हूँ। इसे आप अंगीकार कीजिए।' आर्या ने कहा-'जैसे सुख उपजे, वैसा करो; प्रतिबन्ध मत करो-विलम्ब न करो |' तत्पश्चात् सुव्रता आर्या के इस प्रकार कहने पर पोट्टिला हृष्ट-तुष्ट हुई । उसने ईशान दिशा में जाकर अपने आप आभरण, माला और अलंकार उतार डाले । स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया । जहाँ सुव्रता आर्या थी, वहाँ आई । उन्हें वन्दन-नमस्कार किया । इस प्रकार कहा-'हे भगवती ! यह संसार चारों ओर से जल रहा है, इत्यादि यावत् पोट्टिला ने दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक चारित्र का पालन किया । एक मास की संलेखना करके, अपने शरीर को कृश करके, साठ भक्त का अनशन करके, पापकर्म की आलोचना और प्रतिक्रमण करके, समाधिपूर्वक मृत्यु के अवसर पर काल करके वह किसी देवलोक में देवता के रूप में उत्पन्न हुई। सूत्र - १५३
तत्पश्चात् किसी समय कनकरथ राजा मर गया । तब राजा, ईश्वर, यावत् अन्तिम संस्कार करके वे परस्पर इस प्रकार कहने लगे-देवानुप्रियो ! कनकरथ राजा ने राज्य आदि में आसक्त होने के कारण अपने पुत्रों को विकलांग कर दिया है । देवानुप्रियो ! हम लोग तो राजा के अधीन हैं, राजा से अधिष्ठित होकर रहने वाले हैं और राजा के अधीन रहकर कार्य करने वाले हैं, तेतलिपुत्र अमात्य राजा कनकरथ का सब स्थानों में और सब
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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