Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक
अध्ययन-१५ - नंदिफल सूत्र - १५७
'भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने चौदहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो पन्द्रहवें ज्ञातअध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?' उस काल और उस समय में चम्पा नगरी थी। उसके बाहर पूर्णभद्र चैत्य था । जितशत्रु राजा था । धन्य सार्थवाह था, जो सम्पन्न था यावत् किसी से पराभूत होनेवाला नहीं था । उस चम्पानगरी से उत्तर-पूर्व दिशामें अहिच्छत्रा नगरी थी । वह धन-धान्य आदि से परिपूर्ण थी । उस अहिच्छत्रा नगरी में कनककेतु नामक राजा था । वह महाहिमवन्त पर्वत के समान आदि विशेषणों से युक्त था।
किसी समय धन्य-सार्थवाह के मनमें मध्यरात्रि समय इस प्रकार अध्यवसाय, चिन्तित, प्रार्थित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-'विपुल माल लेकर मुझे अहिच्छत्रा नगरीमें व्यापार करने जाना श्रेयस्कर है। ऐसा विचार करके गणिम, धरिम, मेय, परिच्छेद्य माल ग्रहण किया । ग्रहण करके गाड़ी-गाड़े तैयार किए । तैयार करके गाड़ीगाड़े भरे । कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ । चम्पा के शृंगाटक यावत् सब मार्गोंमें, गली-गली में घोषणा कर दो-'हे देवानुप्रियो ! धन्य-सार्थवाह विपुल माल भरकर अहिच्छत्रा नगरीमें वाणिज्य निमित्त जाना चाहता है । अत एव हे देवानुप्रियो! जो भी चरक चीरिक चर्मखंडिक भिक्षांड पांडुरंक गोतम गोव्रती गृहीधर्मा गृहस्थधर्म चिन्तन करनेवाला अविरुद्ध विरुद्ध वृद्ध-तापस श्रावक रक्तपट निर्ग्रन्थ आदि व्रतवान या गृहस्थ-जो भी कोई-धन्य सार्थवाह साथ अहिच्छत्रा नगरी जाना चाहे, उसे धन्य सार्थवाह अपने साथ ले जाएगा जिसके पास छतरी न होगी उसे छतरी दिलाएगा । वह बिना जूतेवाले को जूते दिलाएगा, जिसके पास कमंडलु नहीं होगा उसे कमंडलु दिलाएगा, जिसके पास पथ्यदन न होगा उसे पथ्यदन दिलाएगा, जिसके पास प्रक्षेप न होगा, उसे प्रक्षेप दिलाएगा, जो पड़ जाएगा, भग्न हो जाएगा, या रुग्ण हो जाएगा, उसकी सहायता करेगा और सुखपूर्वक अहिच्छत्रा नगरी पहुंचाएगा-दो बार और तीन बार ऐसी घोषणा कर दो । घोषणा करके मेरी यह आज्ञा वापिस लौटाओ-मुझे सूचित करो ।' तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् इस प्रकार घोषणा की-'हे चम्पा नगरी के निवासी भगवंतो ! चरक आदि ! सूनो, इत्यादि कहकर उन्होंने धन्य सार्थवाह की आज्ञा उसे वापिस सौंपी
कौटुम्बिक पुरुषों की पूर्वोक्त घोषणा सूनकर चम्पा नगरी के बहत-से चरक यावत् गृहस्थ धन्य सार्थवा समीप पहुँचे । तब उन चरक यावत् गृहस्थों में से जिनके पास जूते नहीं थे, उन्हें धन्य सार्थवाह ने जूते दिलवाए, यावत् पथ्यदन दिलवाया । फिर उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और चम्पा नगरी के बाहर उद्यान में मेरी प्रतीक्षा करते हुए ठहरो ।' तदनन्तर वे पूर्वोक्त चरक यावत् गृहस्थ प्रतीक्षा करते हुए ठहरे । तब धन्य सार्थवाह ने शुभ तिथि, करण और नक्षत्र में विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन बनवाया । मित्रों, ज्ञातिजनों आदि को आमन्त्रित करके उन्हें जिमाया । जिमाकर उनसे अनुमति ली । गाड़ी-गाड़े जुतवाये और फिर चम्पा नगरी से बाहर नीकला । बहुत दूर-दूर पर पड़ाव न करता हुआ अर्थात् थोड़ी-थोड़ी दूर पर मार्ग में बसता-बसता, सुखजनक बसति ओर प्रातराश करता हुआ अंग देश के बीचोंबीच होकर देश की सीमा पर जा पहुँचा । गाड़ी-गाड़े खोले । पड़ाव डाला । फिर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा
'देवानुप्रियो ! तुम मेरे सार्थ के पड़ाव में ऊंचे-ऊंचे शब्दों से बार-बार उद्घोषणा करते हुए ऐसा कहो कि-हे देवानुप्रियो ! आगे आने वाली अटवी में मनुष्यों का आवागमन नहीं होता और वह बहत लम्बी है । उस भाग में 'नन्दीफल' नामक वृक्ष है । वे गहरे हरे वर्ण वाले यावत् पत्तों वाले, पुष्पों वाले, फलों वाले, हरे, शोभायमान
और सौन्दर्य से अतीव-अतीव शोभित हैं । उनका रूप-रंग मनोज्ञ है यावत् स्पर्श मनोहर है और छाया भी मनोहर है। किन्तु हे देवानुप्रियो ! जो कोई भी मनुष्य उन नन्दीफल वृक्षों के मूल, कंद, छाल, पत्र, पुष्प, फल, बीज या हरित का भक्षण करेगा अथवा उनकी छाया में भी बैठेगा, उसे आपाततः तो अच्छा लगेगा, मगर बाद में उनका परिणमन होने पर अकाल में ही वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा । अत एव कोई उन नंदीफलों के मूल आदि का सेवन न करे यावत् उनकी छाया में विश्राम भी न करे, जिससे अकाल में ही जीवन का नाश न हो । हे देवानुप्रियो ! तुम दूसरे
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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