Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा '
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ जान पड़ता है कि मैंने इस प्रकार के शब्द पहले भी सूने हैं। इस तरह विचार करने से, शुभ परिणाम के कारण, यावत् जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हो गया। उसे अपना पूर्वजन्म अच्छी तरह याद हो गया तत्पश्चात् उस मेंढ़क को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ- मैं इसी तरह राजगृह नगर में नन्द नामक मणिकार सेठ था-धन-धान्य आदि से समृद्ध था । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर का आगमन हुआ । तब मैंने श्रमण भगवान महावीर के निकट पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप श्रावधर्म अंगीकार किया था । कुछ समय बाद साधुओं के दर्शन न होने आदि से मैं किसी समय मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया । तत्पश्चात् एक बार किसी समय ग्रीष्मकाल के अवसर पर में तेले की तपस्या करके विचर रहा था। तब मुझे पुष्करिणी खुदवाने का विचार हुआ, श्रेणिक राजा से आज्ञा ली, नन्दी पुष्करिणी खुदवाई, वनखण्ड लगवाये, चार सभाएं बनवाई, यावत् पुष्करिणी के प्रति आसक्ति होने के कारण में नन्दा पुष्करिणी में मेंढ़क पर्याय में उत्पन्न हुआ। अत एव में अधन्य
, अपुण्य हूँ, मैंने पुण्य नहीं किया, अतः मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन से नष्ट हुआ, भ्रष्ट हुआ और एकदम भ्रष्ट हो गया । तो अब मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि पहले अंगीकार किये पाँच अणुव्रतों को और सात शिक्षाव्रतों को मैं स्वयं ही पुनः अंगीकार करके रहूँ । नन्द मणिकार के जीव उस मेंढ़क ने इस प्रकार विचार करके पहले अंगीकार किये हुए पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों को पुनः अंगीकार किया। इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया आज से जीवन पर्यन्त मुझे बेले-बेले की तपस्या से आत्मा को भावित करते हुए विचरना कल्पता है। पारणा में भी नन्दा पुष्करिणी के पर्यन्त भागों में, प्रासुक हुए स्नान के जल से और मनुष्यों के उन्मर्दन आदि द्वारा ऊतारे मैल से अपनी आजीविका चलाना कल्पता है।' अभिग्रह धारण करके निरन्तर बेले- बेले की तपस्या से आत्मा को भावित करता हुआ विचरने लगा ।
हे गौतम! उस काल और उस समय में मैं गुणशील चैत्य में आया । वन्दन करने के लिए परीषद् नीकली । उस समय नन्दा पुष्करिणी में बहुत से जन नहाते, पानी पीते और पानी ले जाते हुए आपस में इस प्रकार बातें करने लगे-श्रमण भगवान महावीर यहीं गुणशील चैत्य उद्यान में समवसृत हुए हैं। सो हे देवानुप्रिय ! हम चलें और श्रमण भगवान महावीर को वन्दना करें, यावत् उपासना करें। यह हमारे लिए इहभव में और परभव में हित के लिए एवं सुख के लिए होगा, क्षमा और निःश्रेयस के लिए तथा अनुगामीपन के लिए होगा । बहुत जनों से यह वृत्तान्त सून कर और हृदय में धारण करके उस मेंढ़क को ऐसा विचार, चिन्तन, अभिलाषा एवं मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ- निश्चय ही श्रमण भगवान महावीर यहाँ पधारे हैं, तो मैं जाऊं और भगवान की वन्दना करूँ । ऐसा विचार करके वह धीरे-धीरे नन्दा पुष्करिणी से बाहर नीकला जहाँ राजमार्ग था, वहाँ आया। उत्कृष्ट दर्दुरगति से चलता हुआ मेरे पास आने के लिए कृत संकल्प हुआ। इधर भंभसार अपरमाना श्रेणिक राजा ने स्नान किया एवं कौतुक-मंगल-प्रायश्चित्त किया । यावत् वह सब अलंकारों से विभूषित हुआ और श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ़ हुआ । कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र से, श्वेत चामरों से शोभित होता हुआ, अश्व, हाथी, रथ और बड़े-बड़े सुभटों के समूह रूप चतुरंगिणी सेना से परिवृत्त होकर मेरे चरणों की वन्दना करने के लिए शीघ्रतापूर्वक आ रहा था । तब वह मेंढ़क श्रेणिक राजा के एक अश्वकिशोर के बाएं पैक से कुचल गया । उसकी आँतें बाहर नीकल गई घोड़े के पैर से कुचले जाने के बाद वह मेंढ़क शक्तिहीन, बलहीन, वीर्यहीन और पुरुषकार-पराक्रम से हीन हो गया । 'अब इस जीवन को धारण करना शक्य नहीं है ।' ऐसा जानकर वह एक तरफ चला गया । वहाँ दोनों हाथ जोड़कर, तीन बार मस्तक पर आवर्तन करके, अंजलि करके इस प्रकार बोला- अरहंत यावत् निर्वाण को प्राप्त समस्त तीर्थंकर भगवंतों को नमस्कार हो। पहले भी मैंने श्रमण भगवान महावीर के समीप स्थूल प्राणातिपात, यावत् स्थूल परिग्रह का समस्त परिग्रह किया था; तो अब भी मैं उन्हीं भगवान के निकट समस्त प्राणातिपात यावत् समस्त परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूँ; जीवन पर्यन्त के लिए सर्व अशन, पान, खादिम और स्वादिम-चारों प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान करता हूँ । यह जो मेरा इष्ट और कान्त शरीर है, जिसके विषय में चाहा था कि इसे रोग आदि स्पर्श न करें, इसे भी अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक त्यागता हूँ।' इस प्रकार कहकर दर्दुर ने पूर्ण प्रत्याख्यान किया । तत्पश्चात् वह मेंढ़क मृत्यु के समय काल करके, यावत् सौधर्म कल्प में, दर्दुरावतंसक नामक विमान में, उपपातसभा में, दर्दुरदेव के रूप में उत्पन्न हुआ । हे गौतम ! दर्दुरदेव ने इस प्रकार वह दिव्य देवर्द्धि
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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