Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक
अध्ययन-१३-मण्डुक
सूत्र - १४५
भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने बारहवें ज्ञात-अध्ययन का अर्थ यह कहा है तो तेरहवे ज्ञातअध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था । उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था । राजगृह के बाहर उत्तरपूर्व दिशा में गुणशील नामक चैत्य था । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर चौदह हजार साधुओं के साथ यावत् अनुक्रम से विचरते हुए, एक गाँव से दूसरे गाँव सुखे-सुखे विहार करते हुए राजगृह नगर और गुणशील उद्यान में पधारे । यथायोग्य अवग्रह की याचना करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । भगवान को वन्दना करने के लिए परीषद् नीकली और धर्मोपदेश सूनकर वापिस लौट गई।
उस काल और उस समय सौधर्मकल्प में, दर्दरावतंसक नामक विमान में, सुधर्मा नामक सभा में, दर्दर नामक सिंहासन पर, दर्दुर नामक देव चार हजार सामानिक देवों, चार अग्रमहिषियों और तीन प्रकार की परीषदों के साथ यावत् सूर्याभ देव के समान दिव्य भोग योग्य भोगों को भोगता हुआ विचर रहा था । उस समय उसने इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को अपने विपुल अवधिज्ञान से देखते-देखते राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में भगवान महावीर को देखा । तब वह परिवार के साथ भगवान के पास आया और सूर्याभ देव के समान नाट्यविधि दिखलाकर वापिस लौट गया । भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-भगवन्! दर्दुर देव महान् ऋद्धिमान्, महाद्युतिमान्, महाबलवान्, महायशस्वी, महासुखवान् तथा महान् प्रभाववान् है, तो हे भगवन् ! दर्दुर देव की वह व्यि देवऋद्धि कहाँ चली गई ? कहाँ समा गई ? भगवान् ने उत्तर दिया-'गौतम ! वह देव -ऋद्धि शरीर में गई, शरीर में समा गई । इस विषय में कूटागार का दृष्टान्त समझना ।।
गौतमस्वामी ने पुनः प्रश्न किया-'भगवन् ! दर्दुरदेव ने वह दिव्य देव-ऋद्धि किस प्रकार लब्ध की, किस प्रकार प्राप्त की? किस प्रकार वह उसके समक्ष आई? गौतम ! इसी जम्बूद्वीप में, भरतक्षेत्र में, राजगृह नगर था। गुणशील चैत्य था । श्रेणिक राजा था । उस नगर में नन्द नामक मणिकार सेठ रहता था । वह समृद्ध था, तेजस्वी था और किसी से पराभूत होने वाला नहीं था । हे गौतम ! उस काल और उस समय में मैं गुणशील उ परीषद् वन्दना करने के लिए नीकली और श्रेणिक राजा भी नीकला । तब नन्द मणिकार सेठ इस कथा का अर्थ जानकर स्नान करके विभूषित होकर पैदल चलता हुआ आया, यावत् मेरी उपासना करने लगा। फिर वह नन्द धर्म सूनकर श्रमणोपासक हो गया। तत्पश्चात् मैं राजगृह से बाहर नीकलकर बाहर जनपदों में विचरण करने लगा।
तत्पश्चात् नन्द मणिकार श्रेष्ठी साधुओं का दर्शन न होने से, उनकी उपासना न करने से, उनका उपदेश न मिलने से और वीतराग के वचन न सूनने से, क्रमशः सम्यक्त्व के पर्यायों की धीरे-धीरे हीनता होती चली जाने से
और मिथ्यात्व के पर्यायों की क्रमशः वृद्धि होते रहने से, एक बार किसी समय मिथ्यात्वी हो गया । नन्द मणिकार श्रेष्ठी ने किसी समय ग्रीष्मऋतु के अवसर पर, ज्येष्ठ मास में अष्टम भक्त अंगीकार किया । वह पौषधशाला में यावत् विचरने लगा । तत्पश्चात् नन्द श्रेष्ठी का अष्टमभक्त जब परिणत हो रहा था-तब प्यास और भूख से पीड़ित हुए उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ-'वे यावत् ईश्वर सार्थवाह आदि धन्य हैं, जिनकी राजगृह नगर से बाहर बहुतसी बावड़ियाँ हैं, पुष्करिणियाँ हैं, यावत् सरोवरों की पंक्तियाँ हैं, जिनमें बहुतेरे लोग स्नान करते हैं, पानी पीते हैं
और जिनसे पानी भर ले जाते हैं । तो मैं भी कल प्रभात होने पर श्रेणिक राजा की आज्ञा लेकर राजगृह नगर से बाहर, उत्तरपूर्व दिशा में, वैभारपर्वत के कुछ समीप में, वास्तुशास्त्र के पाठकों से पसंद किये हुए भूमिभाग में नन्दा पुष्करिणी खुदवाऊं, यह मेरे लिए उचित होगा ।' नन्द श्रेष्ठी ने इस प्रकार विचार करके, दूसरे दिन प्रभात होने पर पोषध पारा, स्नान किया, बलिकर्म किया, फिर मित्र, ज्ञाति आदि से यावत् परिवृत्त होकर बहुमूल्य उपहार लेकर राजा के समक्ष रखा और इस प्रकार कहा-'स्वामिन् ! आपकी अनुमति पाकर राजगृह नगर के बाहर यावत् पुष्करिणी खुदवाना चाहता हूँ ।' राजा ने उत्तर दिया-'जैसे सुख उपजे, वैसा करो।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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