Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र -६, 'ज्ञाताधर्मकथा '
अध्ययन-११- दावद्रव
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक
सूत्र - १४२
'भगवन् ! ग्यारहवे अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था । उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था । उसके बाहर उत्तरपूर्व दिशा में गुणशील नामक चैत्य था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर अनुक्रम से विचरते हुए, यावत् गुणशील नामक उद्यान में समवसृत हुए । वन्दना करने के लिए राजा श्रेणिक और जनसमूह नीकला । भगवान् ने धर्म का उपदेश किया । जनसमूह वापिस लौट गया। तत्पश्चात् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से कहा'भगवन्! जीव किस प्रकार आराधक और किस प्रकार विराधक है ?'
हे गौतम! जैसे एक समुद्र के किनारे दावद्रव नामक वृक्ष कहे गये हैं वे कृष्ण वर्ण वाले यावत् निकुरंब रूप हैं। पत्तों वाले, फलों वाले, अपनी हरियाली के कारण मनोहर और श्री से अत्यन्त शोभित शोभित होते हुए स्थित
। जब द्वीप सम्बन्धी ईषत् पुरोवात पथ्यवात, मन्द वात और महावात चलती है, तब बहुत-से दावद्रव नामक वृक्ष पत्र आदि से युक्त होकर खड़े रहते हैं । उनमें से कोई-कोई दावद्रव वृक्ष जीर्ण जैसे हो जाते हैं, झोड़ हो जाते हैं, अत एव वे खिले हुए पीले पत्तों, पुष्पों और फलों वाले हो जाते हैं और सूखे पेड़ की तरह मुरझाते हुए खड़े रहते हैं। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु या साध्वी यावत् दीक्षित होकर बहुत-से साधुओं, साध्वीओं, श्रावकों और श्राविकाओं के प्रतिकूल वचनों को सम्यक् प्रकार से सहन करता है, यावत् विशेष रूप से सहन करता है, किन्तु बहुत से अन्य तीर्थिकों के तथा गृहस्थों के दुर्वचन को सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करता है, यावत् विशेष रूप से सहन नहीं करता है, ऐसे पुरुष को मैंने देश- विराधक कहा है ।
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आयुष्मन् श्रमणों! जब समुद्र सम्बन्धी ईषत् पुरोवात, पथ्य या पश्चात् वात, मंदवात और महावात बहती हैं, तब बहुत-से दावद्रव वृक्ष जीर्ण-से हो जाते हैं, झोड़ हो जाते हैं, यावत् मुरझाते - मुरझाते खड़े रहते हैं। किन्तु कोई-कोई दावद्रव वृक्ष पत्रित, पुष्पित यावत् अत्यन्त शोभायमान होते हुए रहते हैं इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों! जो साधु अथवा साध्वी दीक्षित होकर बहुत-से अन्यतीर्थिकों के और बहुत-से गृहस्थों के दुर्वचन सम्यक् प्रकार से सहन करता है और बहुत-से साधुओं, साध्वीओं, श्रावकों तथा श्राविकाओं के दुर्वचन सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करता, उस पुरुष को मैंने देशाराधक कहा है ।
आयुष्मन् श्रमणों ! जब द्वीप सम्बन्धी और समुद्र सम्बन्धी एक भी ईषत् पुरोवात, पथ्य या पश्चात् वात, यावत् महावात नहीं बहती, तब सब दावद्रव वृक्ष जीर्ण सरीखे हो जाते हैं, यावत् मुरझाए रहते हैं । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु या साध्वी, यावत् प्रव्रजित होकर बहुत-से साधुओं, साध्वीयों, श्रावकों, श्राविकाओं, अन्यतीर्थिकों एवं गृहस्थों के दुर्वचन शब्दों को सम्यक् प्रकार से सहन नही करता, उस को मैंने सर्वविराधक कहा ।
जब द्वीप सम्बन्धी और समुद्र सम्बन्धी भी ईषत् पुरोवात, पथ्य या पश्चात् वात, यावत् बहती हैं, तब तभी दावद्रव वृक्ष पत्रित, पुष्पित, फलित यावत् सुशोभित रहते हैं । हे आयुष्मन् श्रमणों ! इसी प्रकार जो साधु या साध्वी बहुत-से श्रमणों के, श्रमणियों के, श्रावकों के, श्राविकाओं के, अन्यतीर्थिकों के और गृहस्थों के दुर्वचन सम्यक् प्रकार से सहन करता है, उस पुरुष को मैंने सर्वाधिक कहा है। इस प्रकार हे गौतम! जीव आराधक और विराधक होते हैं । हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने ग्यारहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है । वैसा ही मैं कहता हूँ I
अध्ययन- ११ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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