Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक
अध्ययन-१२- उदक
सूत्र-१४३
"भगवन् ! यदि यावत् सिद्धि प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ग्यारहवे ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो बारहवें ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी। उसके बाहर पूर्णभद्र नामक चैत्य था । उस चम्पा नगरी में जितशत्रु नामक राजा था । धारिणी नामक रानी थी, वह परिपूर्ण पाँचों इन्द्रियों वाली यावत सुन्दर रूप वाली थी। जितशत्र राजा का पत्र और धारिणी देवी का आत्मज अदीनशत्रु नामक कुमार था । सुबुद्धि नामक मन्त्री था । वह (यावत्) राज्य की धूरा का चिन्तक श्रमणोपासक और जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता था।
चम्पा नगरी के बाहर ईशान दिशा में एक खाई में पानी था । वह मेद, चर्बी, मांस, रुधिर और पीब के समूह से युक्त था । मृतक शरीरों से व्याप्त था, यावत् वर्ण से अमनोज्ञ था । वह जैसे कोई सर्प का मृत कलेवर हो, गाय का कलेवर हो, यावत् मरे हुए, सड़े हुए, गले हुए, कीड़ों से व्याप्त और जानवरों के खाये हुए किसी मृत कलेवर के समान दुर्गन्ध वाला था । कृमियों के समूह से परिपूर्ण था । जीवों से भरा हुआ था । अशुचि, विकृत और बीभत्स-डरावना दिखाई देता था । क्या वह (वस्तुतः) ऐसे स्वरूप वाला था ? नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं है । वह जल इससे भी अधिक अनिष्ट यावत् गन्ध आदि वाला था। सूत्र-१४४
वह जितशत्रु राजा एक बार-किसी समय स्नान करके, बलिकर्म करके, यावत् अल्प किन्तु बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत करके, अनेक राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के साथ भोजन के समय पर सुखद आसन पर बैठ कर, विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन जीम रहा था । यावत् जीमने के अनन्तर, हाथ-मुँह धोकर, परम शुचि होकर उस विपुल अशन, पान आदि भोजन के विषय में वह विस्मय को प्राप्त हुआ । अत एव उन बहुत-से ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि से कहने लगा-'अहो देवानुप्रियो ! यह मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम उत्तम वर्ण से यावत् उत्तम स्पर्श से युक्त है, वह आस्वादन करने योग्य है, विशेष रूप से आस्वादन करने योग्य है । पुष्टिकारक है, बल को दीप्त करने वाला है, दर्प उत्पन्न करने वाला है, काम-मद का जनक है और बलवर्धक तथा समस्त इन्द्रियों को और गात्र को विशिष्ट आह्लादक उत्पन्न करने वाला है । तत्पश्चात् बहुत-से ईश्वर यावत् सार्थवाह प्रभृति जितशत्रु से कहने लगे-'स्वामिन् ! आप जो कहते हैं, बात वैसी ही है । अहा, यह मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम उत्तम वर्ण से युक्त हैं, यावत् विशिष्ट आह्लादजनक हैं।'
तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से कहा-'अहो सुबुद्धि ! यह मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम उत्तम वर्णादि से युक्त और यावत् समस्त इन्द्रियों को एवं गात्र को विशिष्ट आह्लादजनक है ।' तब सुबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु के इस अर्थ का आदर नहीं किया । समर्थन नहीं किया, वह चूप रहा । जितशत्रु राजा के द्वारा दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार कहने पर सुबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु राजा से कहा-मैं इस मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम में तनिक भी विस्मित नहीं हूँ । हे स्वामिन् ! सुरभि शब्द वाले पुद्गल दुरभि शब्द के रूप में परिणत हो जाते हैं और दुरभि शब्द वाले पुद्गल भी सुरभि शब्द के रूप में परिणत हो जाते हैं । उत्तम रूप वाले पुद्गल खराब रूप में और खराब रूप वाले पुद्गल उत्तम रूप में परिणत हो जाते हैं । सुरभि गन्ध वाले पुद्गल दुरभिगन्ध में और दुरभिगन्ध वाले पुद्गल भी सुरभिगन्ध में परिणत हो जाते हैं । सुन्दर रस वाले पुद् गल खराब रस में और खराब रस वाले पुद्गल सुन्दर रस वाले पुद्गल में परिणत हो जाते हैं । शुभ स्पर्श वाले पुद् गल अशुभ स्पर्श वाले और अशुभ स्पर्श वाले पुद्गल शुभ स्पर्श वाले बन जाते हैं । हे स्वामिन् ! सब पुद्गलों में प्रयोग और विस्रसा परिणमन होता ही रहता है । उस समय जितशत्रु ने ऐसा कहने वाले सुबुद्धि अमात्य के इस कथन का आदर नहीं किया, अनुमोदन नहीं किया और वह चूपचाप रहा ।
एक बार किसी समय जितशत्रु स्नान करके, उत्तम अश्व की पीठ पर सवार होकर, बहुत-से भटों-सुभटों के
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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