Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
View full book text
________________
आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक पदार्थों को, उन्हें सिद्ध करने वाले हेतुओं को, प्रश्नों को, कारणों को और व्याकरणों को कहते थे और बार-बार कहते थे । इष्ट और मनोहर वाणी से मेरे साथ आलाप-संलाप करते थे । किन्तु जब से मैंने मुण्डित होकर, गृहवास से नीकलकर साधु-दीक्षा अंगीकार की है, तब से लेकर साधु मेरा आदर नहीं करते, यावत् आलाप-संलाप नहीं करते । तिस पर भी वे श्रमण निर्ग्रन्थ पहली और पीछली रात्रि के समय वाचना, पृच्छना आदि के लिए आते-जाते मेरे संस्तारक को लाँघते हैं और मैं इतनी लम्बी रातभर में आँख भी न मीच सका । अत एव कल रात्रि के प्रभात रूप होने पर यावत् तेज जाज्वल्यमान होने पर श्रमण भगवान महावीर से आज्ञा लेकर पुनः गृहवास में बसना ही मेरे लिए अच्छा है ।' मेघकुमार ने ऐसा विचार किया । विचार करके आर्तध्यान के कारण दुःख से पीड़ित और विकल्प-युक्त मानस को प्राप्त होकर मेघकुमार ने वह रात्रि नरक की भाँति व्यतीत की । रात्रि व्यतीत करके प्रभात होने पर, सर्य के तेज से जाज्वल्यमान होने पर, जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आया । आकर तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की । प्रदक्षिणा करके भगवान को वन्दन किया, नमस्कार किया । वन्दन नमस्कार करके यावत् भगवान की पर्युपासना करने लगा। सूत्र-३७
तत्पश्चात् हे मेघ' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने मेघकुमार से कहा-'हे मेघ! तुम रात्रि के पहले और पीछले काल के अवसर पर, श्रमण निर्ग्रन्थों के वाचना पृच्छना आदि के लिए आवागमन करने के कारण, लम्बी रात्रि पर्यन्त थोड़ी देर के लिए भी आँख नहीं मींच सके । मेघ ! तब तुम्हारे मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-जब मैं गृहावास में निवास करता था, तब श्रमण निर्ग्रन्थ मेरा आदर करते थे यावत् मुझे जानते थे; परन्तु जब से मैंने मुण्डित होकर, गृहवास से नीकलकर साधुता की दीक्षा ली है, तब से श्रमण निर्ग्रन्थ न मेरा आदर करते हैं, न मुझे जानते हैं । इसके अतिरिक्त श्रमण रात्रि में कोई वाचना के लिए यावत् आते-जाते मेरे संथारा को लाँघते हैं यावत मुझे पैरों की रज से भरते हैं । अत एव मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि कल प्रभात होने पर श्रमण भगवान महावीर से पूछकर मैं पुनः गहवास में बसने लगें ।' तुमने इस प्रकार का विचार करके आर्त्त-ध्यान के कारण दुःख से पीड़ित एवं संकल्प-विकल्प से युक्त मानस वाले होकर नरक की तरह रात्रि व्यतीत की है। रात्रि व्यतीत करके शीघ्रतापूर्वक मेरे पास आए हो । हे मेघ ! यह अर्थ समर्थ है ? मेघकुमार ने उत्तर दिया-हाँ, यह अर्थ समर्थ है।
भगवान बोले-हे मेघ ! इससे पहले इतीत तीसरे भव में वैताढ्य पर्वत के पादमूल में तुम गजराज थे । वनचरों ने तुम्हारा नाम 'सुमेरुप्रभ' रखा था । उस सुमेरुप्रभ का वर्ण श्वेत था । शंख के दल के समान उज्ज्वल, विमल, निर्मल, दही के थक्के के समान, गाय के दूध के फेन के समान और चन्द्रमा के समान रूप था । वह सात हाथ ऊंचा और नौ हाथ लम्बा था । मध्यभाग दस हाथ के परिमाण वाला था । चार पैर, सैंड पूँछ और जननेन्द्रिय-यह सात अंग प्रतिष्ठित थे । सौम्य, प्रमाणोपेत अंगों वाला, सुन्दर रूप वाला, आगे से ऊंचा, ऊंचे मस्तक वाला, शुभ या सुखद आसन वाला था । उसका पीछला भाग वराह के समान नीचे झुका हुआ था । इसकी कूँख बकरी की कूँख जैसी थी और वह छिद्रहीन थी । वह लम्बे उदर वाला, लम्बे होठ वाला और लम्बी सूंड वाला था । उसकी पीठ धनुष पृष्ठ जैसी आकृति वाली थी । उसके अन्य अवयव भलीभाँति मिले हुए, प्रमाणयुक्त, गोल एवं पुष्प थे । पूँछ चिपकी हुई तथा प्रमाणोपेत थी । पैर कछुए जैसे परिपूर्ण और मनोहर थे । बीसों नाखून श्वेत, निर्मल, चिकने और निरुपहत थे । छह दाँत थे।
हे मेघ ! वहाँ तुम बहुत से हाथियों, हाथिनियों, लोट्टकों, लोट्टिकाओं, कलभों और कलभिकाओं से परिवृत्त होकर एक हजार हाथियों के नायक, मार्गदर्शक, अगुवा, प्रस्थावक, यूथपति और यूथ की वृद्धि करने वाले थे । इनके अतिरिक्त अन्य बहुत-से अकेले हाथी के बच्चों का आधिपत्य करते हुए, स्वामित्व, नेतृत्व करते हुए एवं उनका पालन-रक्षण करते हुए विचरण कर रहे थे । हे मेघ ! तुम निरन्तर मस्त, सदा क्रीड़ापरायण, कंदर्परति-क्रीड़ा करने में प्रीति वाले, मैथुनप्रिय, कामभोग में अतृप्त और कामभोग की तृष्णा वाले थे । बहुत से हाथियों वगैरह से
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 29