Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक होकर, सर्व ऋद्धि के साथ, यावत् दुंदुभि की ध्वनि के साथ अपने-अपने नगरों से नीकले । एक जगह इकट्ठे होकर जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ जाने के लिए तैयार हुए।
तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने इस कथा का अर्थ जानकर अपने सेनापति को बुलाकर कहा-'हे देवानुप्रिय ! शीघ्र ही घोड़ों, हाथियों, रथों और उत्तम योद्धाओं से युक्त चतुरंगी सेना तैयार करो ।' यावत् सेनापति ने सेना को तैयार करके आज्ञा वापिस लौटाई । तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने स्नान किया । कवच धारण करके सन्नद्ध हुआ । श्रेष्ठ हाथी के स्कन्ध पर आरूढ़ हुआ । कोरंट के फूलों की माला वाला छत्र धारण किया । उसके ऊपर श्रेष्ठ और श्वेत चामर ढोरे जाने लगे । यावत् मिथिला राजधानी के मध्य में होकर नीकला । विदेह जनपद के मध्य में होकर जहाँ अपने देश का अन्त था, वहाँ आया । वहाँ पड़ाव डाला । जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं की प्रतीक्षा करता हुआ युद्ध के लिए सज्ज होकर ठहर गया । तत्पश्चात् वे जितशत्रु प्रभृति छहों राजा, जहाँ कुम्भ राजा था, वहाँ आकर कुम्भ राजा के साथ युद्ध करने में प्रवृत्त हो गए।
तत्पश्चात् उन जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं ने कुम्भ राजा के सेन्य का हनन किया, मंथन किया, उसके अत्युत्तम योद्धाओं का घात किया, उसकी चिह्न रूप ध्वजा और पताका को छिन्न-भिन्न करके नीचे गिरा दिया । उसके प्राण संकट में पड़ गए । उसकी सेना चारों दिशाओं में भाग नीकली । तब वह कुम्भ राजा जितशत्रु आदि छह राजाओं के द्वारा हत, मानमर्दित यावत् जिसकी सेना चारों ओर भाग खड़ी हुई है ऐसा होकर, सामर्थ्यहीन, बलहीन, पुरुषार्थ-पराक्रमहीन, त्वरा के साथ, यावत् वेग के साथ जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ आया । मिथिला नगरी में प्रविष्ट होकर उसने मिथिला के द्वार बन्द कर लिए। किले का रोध करने में सज्ज होकर ठहरा । जितशत्रु प्रभृति छहों नरेश जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ आए । मिथिला राजधानी को मनुष्यों के गमनागमन से रहित कर दिया, यहाँ तक कि कोट के ऊपर से भी आवागमन रोक दिया अथवा मल त्यागने के लिए भी आना-जाना रोक दिया । उन्होंने नगरी को चारों ओर से घेर लिया । कुम्भ राजा मिथिला राजधानी को घिरी जानकर आभ्यन्तर उपस्थानशाला में श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठा । वह जितशत्रु आदि छहों राजाओं के छिद्रों को, विवरों को और मर्म को पा नहीं सका । अत एव बहुत से आयों से, उपायों से तथा औत्पत्तिकी आदि चारों प्रकार की बुद्धि से विचार करतेकरते कोई भी आय या उपाय न पा सका । तब उसके मन का संकल्प क्षीण हो गया, यावत् वह हथेली पर मुख रखकर आर्त्तध्यान करने लगा-चिन्ता में डूब गया।
इधर विदेहराजवरकन्या मल्ली ने स्नान किया, यावत् बहुत-सी कुब्जा आदि दासियों से परिवृत्त होकर जहाँ कुम्भ राजा था, वहाँ आई । आकर उसने कुम्भ राजा का चरण ग्रहण किया-पैर छुए । तब कुम्भ राजा ने विदेहराजवरकन्या मल्ली का आदर नहीं किया, अत्यन्त गहरी चिन्ता में व्यग्र होने के कारण उसे उसका आना भी मालूम नहीं हुआ, अत एव वह मौन ही रहा । तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने राजा कुंभ से इस प्रकार कहा 'हे तात ! दूसरे समय मुझे आती देखकर आप यावत् मेरा आदर करते थे, प्रसन्न होते थे, गोद में बिठाते थे, परन्तु क्या कारण है कि आज आप अवहत मानसिक संकल्प वाले होकर चिन्ता कर रहे हैं ?' तब राजा कुम्भ ने विदेहराजवरकन्या मल्ली से इस प्रकार कहा-'हे पुत्री ! इस प्रकार तुम्हारे लिए जितशत्रु प्रभृति छह राजाओं ने दूत भेजे थे । मैंने उन दूतों को अपमानित करके यावत् नीकलवा दिया । तब वे कुपित हो गए। उन्होंने मिथिला राजधानी को गमनागमनहीन बना दिया है, यावत् चारों ओर घेरा डालकर बैठे हैं । अत एव हे पुत्री ! मैं उन जितशत्रु प्रभृति नरेशों के अन्तर-छिद्र आदि न पाता हुआ यावत् चिन्ता में डूबा हूँ।'
तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने राजा कुम्भ से इस प्रकार कहा-तात ! आप अवहत मानसिक संकल्प वाले होकर चिन्ता न कीजिए । हे तात ! आप उन जितशत्रु आदि छहों राजाओं में से प्रत्येक के पास गुप्त रूप से दूत भेज दीजिए और प्रत्येक को यह कहला दीजिए कि 'मैं विदेहराजवरकन्या तुम्हें देता हूँ।' ऐसा कहकर
अवसर पर जब बिरले मनुष्य गमनागमन करते हों और विश्राम के लिए अपने-अपने घरों में मनुष्य बैठे हों; उस समय अलग-अलग राजा का मिथिला राजधानी के भीतर प्रवेश कराइए । उन्हें गर्भगह के अन्दर ले
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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