Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक सूत्र-१२१
उस वनखण्ड में ग्रीष्म ऋतु रूपी सागर सदा विद्यमान रहता है । वह ग्रीष्म-सागर पाटल और शिरीष के पुष्पों रूपी जल से परिपूर्ण रहता है । मल्लिका और वासन्तिकी लताओं के कुसुम ही उसकी उज्ज्वल वेला-ज्वार है। उसमें जो शीतल और सुरभित पवन है, वही मगरों का विचरण है। सूत्र - १२२
देवानुप्रियो ! यदि तुम वहाँ भी ऊब जाओ या उत्सुक हो जाओ तो उस उत्तम प्रासाद में ही आ जाना। मेरी प्रतीक्षा करते-करते यहीं ठहरना । दक्षिण दिशा के वनखण्ड की तरफ मत चले जाना । दक्षिण दिशा के वनखण्ड में एक बड़ा सर्प रहता है । उसका विष उग्र है, प्रचंड है, घोर है, अन्य सब सों से उसका शरीर बड़ा है। इस सर्प के अन्य विशेषण गोशालक के वर्णन में कहे अनुसार जान लेना । वे इस प्रकार हैं-वह काजल, भैंस और कसौटी-पाषाण के समान काला है, नेत्र के विष से और क्रोध से परिपूर्ण है । उसकी आभा काजल के ढेर के समान काली है । उसकी आँखें लाल है। उसकी दोनों जीभे चपल एवं लपलपाती रहती है । वह पृथ्वी रूपी स्त्री की वेणी के समान है । वह सर्प उत्कट, स्फुट, कुटिल, जटिल, कर्कश और विकट फटाटोप करने में दक्ष है । लोहार की भट्ठी में धौका जाने वाला लोहा समान है, वह सर्प भी धम-धम' करता रहता है। उसके प्रचंड एवं तीव्र रोष को कोई नहीं रोक सकता । कुत्ती के भौंकने के समान शीघ्रता एवं चपलता से वह धम्-धम् शब्द करता रहता है । उसकी दृष्टि में विष है, अत एव कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे शरीर का विनाश हो जाए । रत्नद्वीप की देवी ने यह बात दो तीन बार उन माकन्दीपुत्रों से कहकर उसने वैक्रिय समुद्घात से विक्रिया की । विक्रिया करके उत्कृष्टउतावली देवगति से इक्कीस बार लवणसमुद्र का चक्कर काटने में प्रवृत्त हो गई। सूत्र - १२३
वे माकन्दीपुत्र देवी के चले जाने पर एक मुहूर्त में ही उस उत्तम प्रासाद में सुखद स्मृति, रति और धृति नहीं पाते हुए आपस में कहने लगे-'देवानुप्रिय ! रत्नद्वीप की देवी ने हमसे कहा है कि-शक्रेन्द्र के वचनादेश से लवणसमुद्र के अधिपति देव सुस्थित ने मुझे यह कार्य सौंपा है, यावत् तुम दक्षिण दिशा के वनखण्ड में मत जाना, हमें पूर्व दिशा के वनखण्ड में चलना चाहिए । वे पूर्व दिशा के वनखण्ड में आए । आकर उस वन के बावड़ी आदि में यावत् क्रीड़ा करते हुए वल्लीमंडप आदि में यावत् विहार करने लगे । तत्पश्चात् वे माकन्दीपुत्र वहाँ भी सुखद स्मृति यावत् शान्ति न पाते हुए अनुक्रम से उत्तर दिशा और पश्चिम दिशा के वनखण्ड में गए । वहाँ जाकर बावड़ियों में यावत् वल्लीमंडपों में विहार करने लगे । तब वे माकन्दीपुत्र वहाँ भी सुख रूप स्मृति यावत् शान्ति न पाते हुए आपस में कहने लगे-'हे देवानुप्रिय ! रत्नद्वीप की देवी ने हमसे ऐसा कहा है कि-यावत् तुम दक्षिण दिशा के वनखण्ड में मत जाना । तो इसमें कोई कारण होना चाहिए । अत एव हमें दक्षिण दिशा के वनखण्ड में भी जाना चाहिए । इस प्रकार कहकर उन्होंने एक दूसरे के इस विचार को स्वीकार करके उन्होंने दक्षिण दिशा के वनखण्ड में जाने का संकल्प किया-रवाना हुए।
दक्षिणदिशा से दुर्गंध फूटने लगी, जैसे कोई साँप का मृत कलेवर हो, यावत् उससे भी अधिक अनिष्ट दुर्गंध आने लगी । उन माकन्दीपुत्रोंने उस अशुभ दुर्गंध से घबराकर अपने-अपने उत्तरीय वस्त्रों से मुँह ढंक लिए । मुँह ढंक कर दक्षिणदिशा के वनखण्डमें पहुंचे। वहाँ उन्होंने एक बड़ा वधस्थान देखा । देखकर सैकड़ों हाड़ों के समूह से व्याप्त, देखने में भयंकर उस स्थान पर शूली चढ़ाये हुए एक पुरुष को करुण, वीरस, कष्टमय शब्द करते देखा । उसे देखकर वे डर गए । उन्हें बड़ा भय उत्पन्न हुआ । फिर वे शूली पर चढ़ाया पुरुष के पास पहुंचे और बोले-'हे देवानुप्रिय! यह वधस्थान किसका है? तुम कौन हो? किस लिए यहाँ आए थे? किसने तुम्हें इस विपत्ति में डाला?'
तब शूली पर चढ़े उस पुरुष ने माकन्दीपुत्रों से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! यह रत्नद्वीप की देवी का वधस्थान है । देवानुप्रियो ! मैं जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित काकंदी नगरी का निवासी अश्वों का व्यापारी हूँ । मैं बहुत-से अश्व और भाण्डोपकरण पोतवहन में भरकर लवणसमुद्र में चला । तत्पश्चात् पोतवहन के भग्न हो जाने से
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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