Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक सूत्र - १३०
'मुझ अकेली, अनाथ, बान्धव हीन, तुम्हारे चरणों की सेवा करने वाली और अधन्या का त्याग देना तुम्हारे लिए योग्य नहीं है । हे गुणों के समूह ! तुम्हारे बिना मैं क्षण भर भी जीवित रहने में समर्थ नहीं हूँ।' सूत्र - १३१-१३३
'अनेक सैकड़ों मत्स्य, मगर और विविध क्षुद्र जलचर प्राणियों से व्याप्त गृहरूप या मत्स्य आदि के घरस्वरूप इस रत्नाकर के मध्य में तुम्हारे सामने मैं अपना वध करती हूँ । आओ, वापिस लौट चलो । अगर तुम कुपित हो तो मेरा एक अपराध क्षमा करो ।' 'तुम्हारा मुख मेघ-विहीन विमल चन्द्रमा के समान है । तुम्हारे नेत्र शरदऋतु के सद्यः विकसित कमल, कुमुद और कुवलय के पत्तों के समान है । ऐसे नेत्र वाले तुम्हारे मुख के दर्शन की प्यास से मैं यहाँ आई हूँ। तुम्हारे मुख को देखने की मेरी अभिलाषा है । हे नाथ ! तुम इस ओर मुझे देखो, जिससे मैं तुम्हारा मुख-कमल देख लूँ । इस प्रकार प्रेमपूर्ण, सरल और मधुर वचन बार-बार बोलती हुई वह पापिनी
और पापपूर्ण हृदय वाली देवी मार्ग में पीछे-पीछे चलने लगी। सूत्र - १३४
कानों को सुख देने वाले और मन को हरण करने वाले आभूषणों के शब्द से तथा उन पूर्वोक्त प्रणययुक्त, सरल और मधुर वचनों से जिनरक्षित का मन चलायमान हो गया । उसे उस पर दुगुना राग उत्पन्न हो गया । वह रत्नद्वीप की देवी के सुन्दर स्तन, जघन मुख, हाथ, पैर और नेत्र के लावण्य की, रूप की और यौवन की लक्ष्मी को स्मरण करने लगा । उसके द्वारा हर्ष साथ किये गए आलिंगनों को, बिब्बकों को, विलासों को, विहसित को, कटाक्षों को, कामक्रीड़ाजनित निःश्वासों को, स्त्री के ईच्छित अंग के मर्दन को, उपललित को, स्थित को, गति को, प्रणय-कोप को तथा प्रसादित को स्मरण करते हुए जिनरक्षित की मति राग से मोहित हो गई । वह विवश हो गयाकर्म के अधीन हो गया और वह उसके मुख की तरफ देखने लगा । जिनरक्षित को देवी पर अनुराग उत्पन्न हुआ, अत एव मृत्यु रूपी राक्षस ने उसके गले में हाथ डालकर उसकी मति फेर दी, यह बात शैलक यक्ष ने अवधिज्ञान से जान ली और स्वस्थता से रहित उसकी धीरे-धीरे अपनी पीठ से गिरा दिया।
उस निर्दय और पापिनी रत्नद्वीप की देवी ने दयनीय जिनरक्षित को शैलक की पीठ से गिरता देखकर कहा -'रे दास ! तू मरा ।' इस प्रकार कहकर, समुद्र के जल तक पहुँचने से पहले ही, दोनों हाथों से पकड़ कर, चिल्लाते हुए जिनरक्षित को ऊपर उछाला । जब वह नीचे की ओर आने लगा तो उसे तलवार की नोक पर झेल लिया । उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले । अभिमान रस से वध किये हुए जिनरक्षित के रुधिर से व्याप्त अंगोपांगों को ग्रहण करके, दोनों हाथों की अंजलि करके, उसने उत्क्षिप्त-बलि की तरह, चारों दिशाओं में फेंका। सूत्र-१३५
इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य-उपाध्याय के समीप प्रव्रजित होकर, फिर से मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का आश्रय लेता है, याचना करता है, स्पृहा करता है, या दृष्ट अथवा अदृष्ट शब्दादिक के भोग की ईच्छा करता है, वह मनुष्य इसी भव में बहुत-से साधुओं, बहुत-सी साध्वीयों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं द्वारा निन्दनीय होता है, यावत् अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है । उसकी दशा जिनरक्षित जैसी होती है। सूत्र-१३६
पीछे देखने वाला जिनरक्षित छला गया और पीछे नहीं देखने वाला जिनपालित निर्विघ्न अपने स्थान पर पहुँच गया । अत एव प्रवचन सार में आसक्ति रहित होना चाहिए । सूत्र - १३७
चारित्र ग्रहण करके भी जो भोगों की ईच्छा करते हैं, वे घोर संसार-सागर में गिरते हैं और जो भोगों की ईच्छा नहीं करते, वे संसार रूपी कान्तार पार कर जाते हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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