Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक मेरा सब उत्तम भाण्डोपकरण डूब गया । मुझे पटिया का एक टुकड़ा मिल गया । उसी के सहारे तिरता-तिरता मैं रत्नद्वीप के समीप आ पहुँचा । उसी समय रत्नद्वीप की देवी ने मुझे अवधिज्ञान से देखा । देखकर उसने मुझे ग्रहण कर लिया-अपने कब्जे में कर लिया, वह मेरे साथ विपुल कामभोग भोगने लगी । तत्पश्चात् रत्नद्वीप की वह देवी एक बार, किसी समय, एक छोटे-से अपराध पर अत्यन्त कुपित हो गई और उसीने मुझे इस विपदा में पहुँचाया है। देवानुप्रियो ! नहीं मालूम तुम्हारे इस शरीर को भी कौन-सी आपत्ति प्राप्त होगी?' सूत्र - १२४
तत्पश्चात् वे माकन्दीपुत्र शूली पर चढ़े उस पुरुष से यह अर्थ सूनकर और हृदय में धारण करके और अधिक भयभीत हो गए । तब उन्होंने शूली पर चढ़े पुरुष से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! हम लोग रत्नद्वीप के देवता के हाथ से छूटकारा पा सकते हैं ?' तब शूली पर चढ़े पुरुष ने उन माकन्दीपुत्रों से कहा-'देवानुप्रियो ! इस पूर्व दिशा के वनखण्ड में शैलक यक्ष का यक्षायतन है। उसमें अश्व का रूप धारण किये शैलक नामक यक्ष निवास करता है । वह शैलक्ष यक्ष चौदस, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन आगत समय और प्राप्त समय होकर खूब ऊंचे स्वर में इस प्रकार बोलता है-'किसको तारूँ ? किसको पालूँ ?' तो हे देवानुप्रियो ! तुम लोग पूर्व दिशा के वनखण्ड में जाना और शैलक यक्ष की महान् जनों के योग्य पुष्पों से पूजा करना । पूजा करके घुटने और पैर नमा कर, दोनों हाथ जोड़कर, विनय के साथ उसकी सेवा करते हुए ठहरना । जब शैलक यक्ष नियत समय आने पर कहे कि-'किसको तारूँ, किसे पालूँ तब तुम कहना-'हमें तारो, हमें पालो ।' इस प्रकार शैलक यक्ष ही केवल रत्नद्वीप की देवी के हाथ से, अपने हाथ से स्वयं तुम्हारा निस्ताकर करेगा । अन्यथा मैं नहीं जानता कि तुम्हारे शरीर को क्या आपत्ति हो जाएगी |
तत्पश्चात् वे माकन्दीपुत्र शूली पर चढ़े पुरुष से इस अर्थ को सूनकर और मन में धारण करके शीघ्र, प्रचण्ड, चपल, त्वरा वाली और वेग वाली गति से जहाँ पूर्व दिशा का वनखण्ड था, और उसमें पुष्करिणी थी, वहाँ
करिणी में प्रवेश किया । स्नान किया । वहाँ जो कमल, उत्पल, नलिन, सुभग आदि कमल की जातियों के पुष्प थे, उन्हें ग्रहण किया । शैलक यक्ष के यक्षायतन में आए । यक्ष पर दृष्टि पड़ते ही उसे प्रणाम किया । फिर महान् जनों के योग्य पुष्प-पूजा की । वे घुटने और पैर नमा कर यक्ष की सेवा करते हुए, नमस्कार करते हुए उपासना करने लगे । जिसका समय समीप आया है और साक्षात् प्राप्त हुआ है ऐसे शैलक यक्ष ने कहा-'किसे तारूँ, किसे पालूँ ?' तब माकन्दीपुत्रों ने खड़े होकर और हाथ जोड़कर कहा-'हमें तारिए, हमें पालिए । तब शैलक यक्ष ने माकन्दीपुत्रों से कहा-'देवानुप्रियो ! तुम मेरे साथ लवणसमुद्र के बीचोंबीच गमन करोगे, तब वह पापिनी, चण्डा रुद्रा और साहसिका रत्नद्वीप की देवी तुम्हें कठोर, कोमल, अनुकूल, प्रतिकूल, शृंगारमय और मोहजनक उपसर्गों से उपसर्ग करेगी । हे देवानुप्रियो ! अगर तुम रत्नद्वीप की देवी के उस अर्थ का आदर करोगे, उसे अंगीकार करोगे या अपेक्षा करोगे, तो मैं तुम्हें अपनी पीठ से नीचे गिरा दूंगा । और यदि तुम रत्नद्वीप की देवी के उस अर्थ का आदर न करोगे, अंगीकार न करोगे और अपेक्षा न करोगे तो मैं अपने हाथ से, रत्नद्वीप के देवी से तुम्हारा निस्तार कर दूंगा।
तब माकन्दीपुत्रों ने शैलक यक्ष से कहा-'देवानुप्रिय ! आप जो कहेंगे, हम उसके उपपात, वचन-आदेश और निर्देश में रहेंगे । तत्पश्चात् शैलक यक्ष उत्तर-पूर्व दिशा में गया । वहाँ जाकर उसने वैक्रिय समुद्घात करके संख्यात योजन का दंड किया । दूसरी बार और तीसरी बार भी वैक्रिय समुद्घात से विक्रिया की, समुदघात करके एक बड़े अश्व के रूप की विक्रिया की और फिर माकन्दीपुत्रों से इस प्रकार कहा-'हे माकन्दीपुत्रों ! देवानुप्रियो ! मेरी पीठ पर चढ़ जाओ।' तब माकन्दीपुत्रों ने हर्षित और सन्तुष्ट होकर शैलक यक्ष को प्रणाम करके वे शैलक की पीठ पर आरूढ़ हो गए । तत्पश्चात् अश्वरूप धारी शैलक यक्ष माकन्दीपुत्रों को पीठ पर आरूढ़ हुआ जानकर सात-आठ ताड़ के बराबर ऊंचा आकाश में उड़ा । उड़कर उत्कृष्ट, शीघ्रता वाली देव सम्बन्धी दिव्या गति से लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर जिधर जम्बूद्वीप था, भरतक्षेत्र था और जहां चम्पानगरी थी, उसी ओर रवाना हुए
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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