Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
View full book text
________________
आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक राजाओं की ऐसा जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ कि जिससे वे संज्ञी अवस्था के अपने पूर्वभव को उन्होंने सम्यक् प्रकार उसे जान लिया । तत्पश्चात् मल्ली अरिहंत ने जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया जानकर गर्भगृहों के द्वार खुलवा दिए । तब जितशत्रु वगैरह छहों राजा मल्ली अरिहंत के पास आए । उस समय महाबल आदि सातों बालमित्रों का परस्पर मिलन हुआ । तत्पश्चात् अरिहंत मल्ली ने जितशत्रु वगैरह छहों राजाओं से कहा-हे देवानुप्रियो ! निश्चित रूप से मै संसार के भय से उद्विग्न हुई हूँ, यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ। तो आप क्या करेंगे? कैसे रहेंगे? आपके हृदय का सामर्थ्य कैसा है ?
तत्पश्चात् जितशत्रु आदि छहों राजाओं ने मल्ली अरिहंत से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये ! अगर आप संसार के भय से उद्विग्न होकर यावत दीक्षा लेती हो, तो! हमारे लिए दसरा क्या आलंबन, आधार या प्रतिबन्ध है? जैसे आप इस भव से पूर्व के तीसरे भव में, बहत कार्यों में हमारे लिए मेढीभत, प्रमाणभत और धर्म की धरा के रूप में थी, उसी प्रकार अब भी होओ। हम भी संसार के भय से उद्विग्न हैं यावत् जन्म-मरण से भयभीत हैं; अत एव देवानुप्रिया के साथ मुण्डित होकर यावत् दीक्षा ग्रहण करने को तैयार हैं ।' तत्पश्चात् अरिहंत मल्ली ने उन जितशत्रु प्रभृति राजाओं से कहा-'अगर तुम संसार के भय से उद्विग्न हुए हो, यावत् मेरे साथ दीक्षित होना चाहते हो, तो जाओ अपने-अपने राज्य में और अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य पर प्रतिष्ठित करके हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिबिकाओं पर आरूढ होओ। आरूढ होकर मेरे समीप आओ। उन जितशत्र प्रभृति राजाओं ने मल्ली अरिहंत के इस अर्थ को अंगीकार किया।
तत्पश्चात् मल्ली अरिहंत उन जितशत्रु वगैरह को साथ लेकर जहाँ कुम्भ राजा था, वहाँ आकर उन्हें कुम्भ राजा के चरणों में नमस्कार कराया । तब कुम्भ राजा ने उस जितशत्रु वगैरह का विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम से तथा पुष्प, वस्त्र, गंध, माल्य और अलंकारों से सत्कार किया, सम्मान किया । सत्कार-सम्मान करके उन्हें बिदा किया । तत्पश्चात् कुम्भ राजा द्वारा बिदा किये हुए जितशत्रु आदि राजा जहाँ अपने-अपने राज्य थे, नगर थे, वहाँ अपने-अपने राज्यों का उपभोग करते हुए विचरने लगे । तत्पश्चात् अरिहंत मल्ली ने अपने मन में ऐसी धारणा कि कि एक वर्ष के अन्त में मैं दीक्षा ग्रहण करूँगी।' सूत्र-९६,९७
उस काल और उस समय में शक्रेन्द्र का आसन चलायमान हुआ । तब देवेन्द्र देवराज शक्र ने अपना आसन चलायमान हुआ देख कर अवधिज्ञान का प्रयोग किया । तब इन्द्र को मन में ऐसा विचार, चिन्तन, एवं खयाल हआ कि जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, मिथिला राजधानी में कुम्भ राजा की पुत्री मल्ली अरिहंत में एक वर्ष के पश्चात् दीक्षा लूँगी' ऐसा विचार किया है । अतीत काल, वर्तमान काल और भविष्यत् काल के शक्र देवेन्द्र देवराजों का यह परम्परागत आचार है कि-तीर्थंकर भगवंत जब दीक्षा अंगीकार करने को हों, तो उन्हें इतनी अर्थ-सम्पदा देनी चाहिए। वह इस प्रकार- '३०० करोड़, ८८ करोड़ और ८० लाख द्रव्य इन्द्र अरिहंतों को देते हैं।' सूत्र-९८
शक्रेन्द्र ने ऐसा विचार किया । विचार करके उसने वैश्रमण देव को बुलाकर कहा-'देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, यावत् तीन सौ अट्रासी करोड़ और अस्सी लाख स्वर्ण मोहरें देना उचित है । सो हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ और जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में कुम्भ राजा के भवन में इतने द्रव्य का संहरण करो-इतना धन लेकर पहुंचा दो । पहुँचा कर शीघ्र ही मेरी यह आज्ञा वापिस सौंपो ।' तत्पश्चात् वैश्रमण देव, शक्र देवेन्द्र देवराज के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुआ । हाथ जोड़कर उसने यावत् मस्तक पर अंजलि घूमाकर आज्ञा स्वीकार की । स्वीकार करके जंभक देवों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में और मिथिला राजधानी में जाओ और कुम्भ राजा के भवन में तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख अर्थ सम्प्रदान का संहरण करो, अर्थात् इतनी सम्पत्ति वहाँ पहुँचा दो । संहरण करके यह आज्ञा मुझे वापिस लौटाओ।'
तत्पश्चात् वे मुंभक देव, वैश्रमण देव की आज्ञा सूनकर उत्तरपूर्व दिशा में गए । जाकर उत्तर वैक्रिय रूपों
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 83