Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक शैलक ऋषि के इस प्रकार कहने पर पंथक मुनि भयभीत हो गए, त्रास को और खेद को प्राप्त हए । दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके कहने लगे-'भगवन् ! मैं पंथक हूँ | मैंने कायोत्सर्ग करके दैवसिक प्रतिक्रमण किया है और चौमासी प्रतिक्रमण करता हूँ । अत एव चौमासी क्षमापना के लिए आप देवानुप्रिय को वन्दना करते समय, मैंने अपने मस्तक से आपके चरणों का स्पर्श किया है । सो देवानुप्रिय ! क्षमा कीजिए, मेरा अपराध क्षमा कीजिए । देवानुप्रिय ! फिर ऐसा नहीं करूँगा।' शैलक अनगार को सम्यक् रूप से, विनयपूर्वक इस अर्थ के लिए वे पुनः पुनः खमाने लगे | पंथक के द्वारा इस प्रकार कहने पर उन शैलक राजर्षि को यह विचार उत्पन्न हुआ-'मैं राज्य आदि का त्याग करके भी यावत् अवसन्न-आलसी आदि होकर शेष काल में भी पीठ, फलक आदि रखकर विचर रहा हूँ-रह रहा हूँ। श्रमण निर्ग्रन्थों को पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी कोर रहना नहीं कल्पता । अत एव कल मंडुक राजा से पूछकर, पडिहारी पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक वापिस देकर, पंथक अनगार के साथ, बाहर अभ्युद्यत विहार से विचरना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है ।' उन्होंने ऐसा विचार किया । विचार करके दूसरे दिन यावत् उसी प्रकार करके विहार कर दिया। सूत्र - ७२
हे आयुष्मन् श्रमणों ! इसी प्रकार जो साधु या साध्वी आलसी होकर, संस्तारक आदि के विषय में प्रमादी होकर रहता है, वह इसी लोक में बहुत-से श्रमणों, बहुत-सी श्रमणियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं की हीलना का पात्र होता है । यावत् वह चिरकाल पर्यन्त संसार-भ्रमण करता है । तत्पश्चात् पंथक को छोड़कर पाँच सौ अनगारों ने यह वृत्तान्त जाना । तब उन्होंने एक-दूसरे को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा-'शैलक राजर्षि पंथक मुनि के साथ बाहर यावत् उग्र विहार कर रहे हैं तो हे देवानुप्रियो ! अब हमें शैलक राजर्षि के समीप
| उचित है। उन्होंने ऐसा विचार किया। विचार करके राजर्षि शैलक के निकट जाकर विचरने लगे। तत्पश्चात् शैलक प्रभृति पाँच सौ मुनि बहुत वर्षों तक संयमपर्याय पाल कर जहाँ पुंडरीक शत्रुजय पर्वत था, वहाँ आए । आकर थावच्चापुत्र की भाँति शुद्ध हुए। सूत्र - ७३
इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु या साध्वी इस तरह विचरेगा वह इस लोक में बहुसंख्यक साधुओं, साध्वीयों, श्रावकों और श्राविकाओं के द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, नमनीय, पूजनीय, सत्कारणीय और सम्माननीय होगा । कल्याण, मंगल, देव और चैत्य स्वरूप होगा । विनयपूर्वक उपासनीय होगा । परलोक में उसे हाथ, कान एवं नासिका के छेदन के, हृदय तथा वषणों के उत्पाटन के एवं फाँसी आदि के दःख नहीं भोगने पडेंगे। अनादि अनन्त चातुर्गतिक संसार-कान्तार में उसे परिभ्रमण नहीं करना पड़ेगा । वह सिद्धि प्राप्त करेगा । हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने पाँचवे ज्ञात अध्ययन का यह अर्थ कहा है। उनके कथनानुसार मैं कहता हूँ।
अध्ययन-५ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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