Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 65
________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक चावल के दाने उनके हाथ में दिए थे । तो कल यावत् सूर्योदय होन पर पाँच चावल के दाने माँगना मेरे लिए उचित होगा । यावत् जानूं तो सही कि किसने किस प्रकार उनका संरक्षण, संगोपन और संवर्धन किया है ? धन्यसार्थवाह ने दूसरे दिन सूर्योदय होने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम बनवाया । मित्रों, ज्ञातिजनों आदि तथा चारों पुत्रवधूओं के कुलगृहवर्ग के समक्ष जेठी पुत्रवधू उज्झिका को बुलाया और बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे पुत्री! अतीत-विगत पाँचवे संवत्सर में अर्थात् अब से पाँच वर्ष पहले इन्हीं मित्रों, ज्ञातिजनों आदि तथा चारों पुत्रवधूओं के कुलगृह वर्ग के समक्ष मैंने तुम्हारे हाथ में पाँच शालि-अक्षत दिये थे और यह कहा था कि-'हे पुत्री ! जब मैं ये पाँच शालिअक्षत माँगू, तब तुम मेरे ये पाँच शालिअक्षत मुझे वापिस सौंपना । तो यह अर्थ समर्थ है ? उज्झिका ने कहा-'हाँ, सत्य है।' धन्य सार्थवाह बोले-'तो हे पुत्री ! मेरे वह शालिअक्षत वापिस दो।' तत्पश्चात् उज्झिका ने धन्य सार्थवाह की यह बात स्वीकार की । पल्य में से पाँच शालिअक्षत ग्रहण करके धन्य सार्थवाह के समीप आकर बोली- ये हैं वे शालिअक्षत ।' यों कहकर धन्य सार्थवाह के हाथ में पाँच शालि के दाने दे दिए । तब धन्य सार्थवाह ने उज्झिका को सौगन्ध दिलाई और कहा-'पुत्री ! क्या वही ये शालि के दाने हैं, अथवा ये दूसरे हैं ?' तब उज्झिका ने धन्य सार्थवाह से इस प्रकार कहा-'हे तात ! इससे पहले के पाँचवे वर्ष में इन मित्रों एवं ज्ञातिजनों के तथा चारों पुत्रवधूअं के कुलगृह वर्ग के सामने पाँच दाने देकर इनका संरक्षण, संगोपन और संवधर्न करती हुई विचरना' ऐसा आपने कहा था । उस समय मैंने आपकी बात स्वीकार की थी । वे पाँच शालि के दाने ग्रहण किये और एकान्त में चली गई। तब मुझे इस तरह का विचार उत्पन्न हुआ कि पिताजी के कोठार में बहुत से शालि भरे हैं, जब माँगेंगे तो दे दूँगी। ऐसा विचार करके मैंने वह दाने फेंक दिए और अपने काम में लग गई । अत एव हे तात ! ये वही शालि के दाने नहीं हैं । ये दूसरे हैं।' धन्य सार्थवाह उज्झिका से यह अर्थ सूनकर और हृदय में धारण करके क्रुद्ध हुए, कुपित हुए, उग्र हुए और क्रोध में आकर मिसमिसाने लगे । उज्झिका को उन मित्रों, ज्ञातिजनों आदि के तथा चारों पुत्रवधूओं के कुलगृह वर्ग के सामने कुलगृह की राख फेंकने वाली, छाणे डालने या थापने वाली, कचरा झाड़ने वाली, पैर धोने का पानी देने वाली, स्नान के लिए पानी देने वाली और बाहर के दासी के कार्य करने वाली के रूप में नियुक्त किया । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु अथवा साध्वी यावत् आचार्य अथवा उपाध्याय के निकट गृहत्याग करके और प्रव्रज्या लेकर पाँच महाव्रतों का परित्याग कर देता है, वह उज्झिका की तरह इसी भव में बहुत-से श्रमणों, बहुतसी श्रमणियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र बनता है, यावत् अनन्त संसार में पर्यटन करेगा। इसी प्रकार भोगवती के विषय में जानना चाहिए । विशेषता यह कि खांड़ने वाली, कूटने वाली, पीसने वाली, जांते में दल कर धान्य के छिलके उतारने वाली, रांधने वाली, परोसने वाली, त्यौहारों के प्रसंग पर स्वजनों के घर जाकर ल्हावणी बाँटने वाली, घर में भीतर की दासी का काम करने वाली एवं रसोईदारिन का कार्य करने वाली के रूप में नियुक्त किया । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु अथवा साध्वी पाँच महाव्रतों को फोड़ने वाला वह इसी भव में बहुत-से साधुओं, बहुत-सी साध्वीयों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र बनता है, जैसे वह भोगवती। इस प्रकार रक्षिका के विषय में जानना चाहिए । विशेष यह है कि वह जहाँ उसका निवासगृह था, वहाँ गई। कर उसने मंजूषा खोली । खोलकर रत्न की डिबियाँ में से वह पाँच शालि के दाने ग्रहण किए । ग्रहण करके जहाँ धन्य-सार्थवाह था, वहाँ आई । आकर धन्य-सार्थवाह के हाथ में वे शालि के पाँच दाने दे दिए । उस समय धन्य सार्थवाह ने रक्षिका से इस प्रकार कहा-'हे पुत्री ! क्या यह वहीं पाँच शालि-अक्षत हैं या दूसरे हैं ?' रक्षिका ने धन्यसार्थवाह को उत्तर दिया-'तात ! ये वही शालिअक्षत हैं । धन्य ने पूछा-'पुत्री ! कैसे ?' रक्षिका बोली-'तात ! आपने इससे पहले पाँचवे वर्ष में शालि के पाँच दाने दिये थे । तब इन पाँच शालि के दानों को शुद्ध वस्त्र में बाँधा, यावत् तीनों संध्याओं में सार-सम्भाल करती रहती हूँ। अत एव हे तात ! ये वही शालि के दाने हैं, दूसरे नहीं। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह रक्षिका से यह अर्थ सूनकर हर्षित और सन्तुष्ट हुआ । उसे अपने घर के हिरण्य मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 65

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