Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 51
________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! हमारे जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य या उपाध्याय के निकट दीक्षित होकर पाँचों इन्द्रियों का गोपन नहीं करते हैं, वे इसी भव में बहुत साधुओं, साध्वीओं, श्रावकों, श्राविकाओं द्वारा हीनता करने योग्य हैं और परलोक में भी बहुत दंड पाते हैं, यावत् अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हैं, जैसे अपनी इन्द्रियों-अंगों का गोपन न करने वाला वह कछुआ मृत्यु को प्राप्त हुआ । तत्पश्चात् वे पापी सियार जहाँ दूसरा कछुआ था, वहाँ पहुँचे। पहुँचकर उस कछुए को चारों तरफ से, सब दिशाओं से उलट उलट कर देखने लगे, यावत् दाँतों से तोड़ने लगे। परन्तु उसकी चमड़ी का छेदन करने में समर्थ न हो सके । तत्पश्चात् वे पापी सियार दूसरी बार और तीसरी बार दूर चले गए किन्तु कछुए ने अपने अंग बाहर न नीकाले, अतः वे उस कछुए को कुछ भी आबाधा या विबाधा उत्पन्न न कर सके। यावत् उनकी चमड़ी छेदने में भी समर्थन हो सके। तब वे श्रान्त, क्लान्त और परितान्त होकर तथा खिन्न होकर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में लौट गए । तत्पश्चात् उस कछुए ने उन पापी सियारों को चिरकाल से गया और दूर गया जानकर धीरे-धीरे अपनी ग्रीवा बाहर नीकाली। ग्रीवा नीकालकर सब दिशाओं में अवलोकन किया। अवलोकन करके एकसाथ चारों पैर बाहर नीकाले और उत्कृष्ट कूर्मगति से दौड़ता दौड़ता जहाँ मृतगंगातीर नामक द्रह था, वहाँ जा पहुँचा । वहाँ आकर मित्र, ज्ञात, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों से मिल गया। हे आयुष्मन् श्रमणों! इसी प्रकार हमारा जो श्रमण या श्रमणी पाँचों इन्द्रियों का गोपन करता है, जैसे उस कछुए ने अपनी इन्द्रियों को गोपन करके रखा था, वह इसी भव में बहुसंख्यक श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय वन्दनीय नमस्करणीय पूजनीय सत्कारणीय और सम्माननीय होता है। वह कल्याण मंगल देवस्वरूप एवं चैत्यस्वरूप तथा उपासनीय बनता है । परलोक में उसे हाथों, कानों और नाक के छेदन के दुःख नहीं भोगने पड़ते। हृदय के उत्पाटन, वृषणों अंडकोषों के उखाड़ने, फाँसी चढ़ाने आदि के कष्ट नहीं झेलने पड़ते । वह अनादि-अनन्त-संसार- कांतार को पार कर जाता है । हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने चौथे ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ कहा है, वैसा ही मैं कहता हूँ । अध्ययन - ४ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद” Page 51

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