Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा '
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक जहाँ सुरप्रिय नामक यक्ष का यक्षायतन था और जहाँ अशोक वृक्ष था, वहीं पधारे । संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। नगरी से परीषद् नीकली भगवान् ने उसे धर्मोपदेश दिया। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने यह कथा सूनकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा - शीघ्र ही सुधर्मा सभा में जाकर मेघों के समूह जैसी ध्वनि वाली एवं गम्भीर तथा मधुर शब्द करने वाली कौमुदी भेरी बजाओ । तब वे कौटुम्बिक पुरुष, कृष्ण वासुदेव द्वारा इस प्रकार आज्ञा देने पर हृष्ट-तुष्ट हुए, आनन्दित हुए । यावत् मस्तक पर अंजलि करके आज्ञा अंगीकार की । अंगीकार करके कृष्ण वासुदेव के पास से चले । जहाँ सुधर्मा सभा थी और जहाँ कौमुदी नामक भेरी थी, वहाँ आकर मेघ - समूह के समान ध्वनि वाली तथा गंभीर एवं मधुर करने वाली भेरी बजाई । उस समय भेरी बजाने पर स्निग्ध, मधुर और गंभीर प्रतिध्वनि करता हुआ, शरदऋतु के मेघ जैसा भेरी का शब्द हुआ । उस कौमुदी भेरी का ताड़न करने पर नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी द्वारका नगरी के शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, कंदरा, गुफा, विवर, कुहर, गिरिशिखर, नगर के गोपुर, प्रासाद, द्वार, भवन, देवकुल आदि समस्त स्थानों में, लाखों प्रतिध्वनियों से युक्त होकर, भीतर और बाहर के भागों सहित सम्पूर्ण द्वारका नगरी को शब्दायमान करता हुआ वह शब्द चारों ओर फैल गया। तत्पश्चात् नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी द्वारका नगरी में समुद्र। विजय आदि दस दशार अनेक हजार गणिकाएं उस कौमुदी भेरी का शब्द सूनकर एवं हृदय में धारण करके हृष्टतुष्ट, प्रसन्न हुए । यावत् सबने स्नान किया । लम्बी लटकने वाली फूल-मालाओं के समूह को धारण किया । कोरे नवीन वस्त्रों को धारण किया । शरीर पर चन्दन का लेप किया। कोई अश्व पर आरूढ़ हुए, इसी प्रकार कोई गज पर आरूढ़ हुए, कोई रथ पर कोई पालकी में और कोई म्याने में बैठे । कोई-कोई पैदल ही पुरुषों के समूह के साथ चले और कृष्ण वासुदेव के पास प्रकट हुए आए।
तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने समुद्रविजय वगैरह दस दसारों को तथा पूर्ववर्णित अन्य सबको यावत् अपने निकट प्रकट हुआ देखा । देखकर वह हृष्ट-तुष्ट हुए, यावत् उन्होंने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय ! शीघ्र ही चतुरंगिणी सेना सजाओ और विजय नामक गंधहस्ती को उपस्थित करो ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने 'बहुत अच्छा' कहकर सेना सजवाई और विजय नामक गंधहस्ती को उपस्थित किया । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने स्नान किया। वे सब अलंकारों से विभूषित हुए। विजय गंधहस्ती पर सवार हुए। कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र को धारण किये और भटों के बहुत बड़े समूह से घिरे हुए द्वारका नगरी के बीचोंबीच होकर बाहर नीकले । जहाँ गिरनार पर्वत था, जहाँ नन्दनवन उद्यान था, जहाँ सुरप्रिय यक्ष का यक्षायतन था और हजाँ अशोक वृक्ष था, उधर पहुँचे । पहुँचकर अर्हत् अरिष्टनेमि के छत्रातिछत्र पताकातिपताका, विद्याधरों, चारणों एवं जृम्भक देवों को नीचे उतरते और ऊपर चढ़ते देखा । यह सब देखकर वे विजय गंधहस्ती से नीचे उतर गए । उतरकर पाँच अभिग्रह करके अर्हत् अरिष्टनेमि के सामने गए। इस प्रकार भगवान के निकट पहुँचकर तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, उन्हें वन्दन- नमस्कार किया। फिर अर्हत् अरिष्टनेमि ने न अधिक समीप, न अधिक दूर शुश्रूषा करत हुए, नमस्कार करते हुए, अंजलिबद्ध सम्मुख होकर पर्युपासना करने लगे ।
सूत्र - ६५
मेघकुमार की तरह थावच्चापुत्र भी भगवान को वन्दना करने के लिए नीकला। उसी प्रकार धर्म को श्रवण करके और हृदय में धारण करके जहाँ थावच्चा गाथापत्नी थी, वहाँ आया । आकर माता के पैरों को ग्रहण किया । मेघकुमार समान थावच्चापुत्र का वैराग्य निवेदना समझनी माता जब विषयों के अनुकूल और विषयों के प्रतिकूल बहुत-सी आघवणा, पन्नवणा-सन्नवणा, विन्नवणा, सामान्य कहने, विशेष कहने, ललचाने और मनाने में समर्थ न हुई, तब ईच्छा न होने पर भी माता ने थावच्चापुत्र बालक का निष्क्रमण स्वीकार कर लिया। विशेष यह कहा कि'मैं 'तुम्हारा दीक्षा महोत्सव देखना चाहती हूँ ।' तब थावच्चापुत्र मौन रह गया । तब गाथापत्नी थावच्चा आसन से उठी । उठकर महान अर्थवाली, महामूल्यवाली, महापुरुषों के योग्य तथा राजा के योग्य भेंट ग्रहण की। मित्र ज्ञाति आदि से परिवृत्त होकर जहाँ कृष्ण वासुदेव के श्रेष्ठ भवन का मुख्य द्वार का देशभाग था, वहाँ आई प्रतीहार द्वारा
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद"
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