Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

View full book text
Previous | Next

Page 58
________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक हैं । उनमें जो प्रासुक हैं, वे दो प्रकार के हैं । याचित और अयाचित । उनमें जो अयाचित है, वे अभक्ष्य हैं । उनमें जो याचित हैं, वे दो प्रकार के हैं । यथा-एषणीय और अनेषणीय । उनमें जो अनेषणीय हैं, वे अभक्ष्य हैं । जो एषणीय हैं, वे दो प्रकार के हैं-लब्ध और अलब्ध । उनमें जो अलब्ध हैं, वे अभक्ष्य हैं । जो लब्ध हैं वे निर्ग्रन्थों के लिए भक्ष्य हैं । 'हे शुक ! इस अभिप्राय से सरिसवया भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं।' इसी प्रकार 'कुलत्था' भी कहना, विशेषता इस प्रकार हैं-कुलत्था के दो भेद हैं-स्त्री-कुलत्था और धान्यकुलत्था । स्त्री-कुलत्था तीन प्रकार की है । कुलवधू, कुलमाता और कुलपुत्री । ये अभक्ष्य हैं । धान्यकुलत्था भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं इत्यादि । मास सम्बन्धी प्रश्नोत्तर भी इसी प्रकार जानना । विशेषता इस प्रकार है-मास तीन प्रकार के हैं । कालमास, अर्थमास और धान्मास । इनमें से कालमास बारह प्रकार के हैं । श्रावण यावत् आषाढ़, वे सब अभक्ष्य हैं । अर्थमास दो प्रकार के हैं-चाँदी का माशा और सोने का माशा । वे भी अभक्ष्य हैं। धान्मास भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं; शुक परिव्राजक ने पुनः प्रश्न किया-'आप एक हैं ? आप दो हैं ? आप अनेक हैं ? आप अक्षय हैं ? आप अव्यय हैं ? आप अवस्थित हैं ? आप भूत, भाव और भावी वाले हैं ?' 'हे शुक ! मैं द्रव्य की अपेक्षा से एक हूँ, क्योंकि जीव द्रव्य एक ही है । ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से मैं दो भी हूँ । प्रदेशों की अपेक्षा से मैं अक्षय भी हूँ, अव्यय भी हूँ, अवस्थित भी हूँ । उपयोग की अपेक्षा से अनेक भूत, भाव और भावि भी हूँ। थावच्चापुत्र के उत्तर से शुक परिव्राजक को प्रतिबोध प्राप्त हुआ । उसने थावच्चापुत्र को वन्दना की, नमस्कार किया । इस प्रकार कहा-'भगवन् ! मैं आपके पास केवली प्ररूपित धर्म सूनने की अभिलाषा करता हूँ। तत्पश्चात् शुक परिव्राजक थावच्चापुत्र से धर्मकथा सून कर और उसे हृदय में धारण करके इस प्रकार बोला'भगवन् ! मैं एक हजार परिव्राजकों के साथ देवानुप्रिय के निकट मुण्डित होकर प्रव्रजित होना चाहता हूँ ।' थावच्चापुत्र अनगार बोले-'देवानुप्रिय ! जिस प्रकार सुख उपजे वैसा करो ।' यह सूनकर यावत् उत्तरपूर्व दिशा में जाकर शुक परिव्राजक ने त्रिदंड आदि उपकरण यावत् गेरू से रंगे वस्त्र एकान्त में उतार डाले । अपने ही हाथ से शिखा उखाड़ ली । उखाड़ कर जहाँ थावच्चापुत्र अनगार थे, वहाँ आया । वन्दन-नमस्कार किया, वन्दन-नमस्कार करके मुण्डित होकर यावत् थावच्चापुत्र अनगार के निकट दीक्षित हो गया । फिर सामायिक से आरम्भ करके चौदह पूर्वो का अध्ययन किया । तत्पश्चात् थावच्चापुत्रने शुक को १००० अनगार शिष्य के रूप में प्रदान किए। त्पश्चात थावच्चापत्र अनगार सौगंधिका नगरी से और नीलाशोक उद्यान से बाहर नीकले । नीकलकर जनपदविहार अर्थात विभिन्न देशों में विचरण करने लगे । तत्पश्चात वह थावच्चापत्र हजार साधुओं के साथ जहाँ पुण्डरीक-शत्रुजय पर्वत था, वहाँ आए । धीरे-धीरे पुण्डरीक पर्वत पर आरूढ़ हुए। उन्होंने मेघघटा के समान श्याम और जहाँ देवों का आगमन होता था, ऐसे पृथ्वीशिलापट्टक का प्रतिलेखन किया । प्रतिलेखन करके संलेखना धारण कर आहार-पानी का त्याग कर उस शिलापट्टक पर आरूढ़ होकर यावत् पादपोपगमन अनशन ग्रहण किया। वह थावच्चापुत्र बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय पाल कर, ऐसे मां की संलेखना करके साट भक्तों का अनशन करके यावत् केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त करके सिद्ध हुए, वृद्ध हुए, समस्त कर्मों से मुक्त हुए, संसार का अन्त किया, परिनिर्वाण प्राप्त किया तथा सर्व दुःखों से मुक्त हुए। तत्पश्चात् शुक अनगार किसी समय जहाँ शैलकपुर नगर था और जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्यान था, वहीं पधारे । उन्हें वन्दना करने के लिए परीषद् नीकली । शैलक राजा भी नीकला । धर्मोपदेश सूनकर उसे प्रतिबोध प्राप्त हुआ । विशेष यह कि राजा ने निवेदन किया-हे देवानुप्रिय ! मैं पंथक आदि पाँच सौ मंत्रियों से पूछ लूँउनकी अनुमति ले लूँ और मंडुक कुमार को राज्य पर स्थापित कर दूँ । उसके पश्चात् आप देवानुप्रिय के समीप मुंडित होकर गृहवास से नीकलकर अनगार-दीक्षा अंगीकार करूँगा । यह सूनकर, शुक अनगार ने कहा-'जैसे सुख उपजे वैसा करो ।' तत्पश्चात् शैलक राजा ने शैलकपुर नगर में प्रवेश किया । जहाँ अपना घर था और उपस्थानशाला थी, वहाँ आया । आकर सिंहासन पर आसीन हुआ । तत्पश्चात् शैलक राजा ने पंथक आदि पाँच सौ मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 58

Loading...

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162