Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक उनसे घिरा हुआ परिव्राजक-मठ से नीकला । नीकलकर सौगंधिका नगरी के मध्यभाग में होकर जहाँ सुदर्शन का घर था और जहाँ सुदर्शन था वहाँ आया ।
तब सुदर्शन ने शुक परिव्राजक को आता देखा । देखकर वह खड़ा नहीं हुआ, सामने नहीं गया, उसका आदर नहीं किया, उसे जाना नहीं, वन्दना नहीं की, किन्तु मौन रहा । तब शुक परिव्राजक ने सुदर्शन को न खड़ा हुआ देखकर इस प्रकार कहा-हे सुदर्शन ! पहले तुम मुझे आता देखकर खड़े होते थे, सामने आते और आदर करते थे, वन्दना करते थे, परन्तु हे सुदर्शन ! अब तुम मुझे आता देखकर न वन्दना की तो हे सुदर्शन ! किसके समीप तुमने विनयमूल धर्म अंगीकार किया है ? तत्पश्चात् शुक परिव्राजक के इस प्रकार कहने पर सुदर्शन आसन से उठ कर खड़ा हुआ । उसने दोनों हाथ जोड़े मस्तक पर अंजलि की और शुक परिव्राजक से इस प्रकार कहादेवानुप्रिय ! अरिहंत अरिष्टनेमि के अन्तेवासी थावच्चापुत्र नामक अनगार विचरते हुए यहाँ आए हैं और यहीं नीलाशोक नामक उद्यान में विचर रहे हैं। उनके पास से मैंने विनयमूल धर्म अंगीकार किया है। सूत्र - ६८
तत्पश्चात् शुक परिव्राजक ने सुदर्शन से इस प्रकार कहा-'हे सुदर्शन ! चलें, हम तुम्हारे धर्माचार्य थावच्चापुत्र के समीप प्रकट हों-चलें और इन अर्थों को, हेतुओं को, प्रश्नों को, कारणों को तथा व्याकरणों को पूछे ।' अगर वह मेरे इन अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों और व्याकरणों का उत्तर देंगे तो मैं उन्हें वन्दना करूँगा, नमस्कार करूँगा और यदि वह मेरे इन अर्थों यावत् व्याकरणों को नहीं कहेंगे-मैं उन्हें इन्हीं अर्थों तथा हेतुओं आदि से निरुत्तर कर दूंगा । तत्पश्चात् वह शुक परिव्राजक, एक हजार परिव्राजकों के और सुदर्शन सेठ के साथ जहाँ नीलाशोक उद्यान था, और जहाँ थावच्चापुत्र अनगार थे, वहाँ आया । आकर थावच्चापुत्र से कहने लगा-'भगवन् ! तुम्हारी यात्रा चल रही है ? यापनीय है ? तुम्हारे अव्याबाध है ? और तुम्हारा प्रासुक विहार हो रहा है ? तब थावच्चापुत्र ने शुक परिव्राजक के इस प्रकार कहने पर शुक से कहा-हे शक ! मेरी यात्रा भी हो रही है, यापनीय भी वर्त रहा है, अव्याबाध भी है और प्रासुक विहार भी हो रहा है।
तत्पश्चात् शुक ने थावच्चापुत्र से इस प्रकार कहा-'भगवन् ! आपकी यात्रा क्या है ? (थावच्चापुत्र) हे शुक! ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और संयम आदि योगों से जीवों की यतना करना हमारी यात्रा है । शुक-भगवन् ! यापनीय क्या है ? थावच्चापुत्र-शुक ! दो प्रकार का है-इन्द्रिय-यापनीय और नोइन्द्रिय-यापनीय । शुक-'इन्द्रिययापनीय किसे कहते हैं ?' 'शुक ! हमारी श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय बिना किसी उपद्रव के वशीभूत रहती हैं, यही हमारा इन्द्रिय-यापनीय है ।' शुक-'नो-इन्द्रिय-यापनीय क्या है ?' 'हे शुक! क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषाय क्षीण हो गए हों, उपशान्त हो गए हों, उदय में न आ रहे हों, यही हमारा नोइन्द्रिय-यापनीय कहलाता है ।' शुक ने कहा-'भगवन् ! अव्याबाध क्या है ?' 'हे शुक ! जो वात, पित्त, कफ और सन्निपात आदि सम्बन्धी विविध प्रकार के रोग और आतंक उदय में न आवें, वह हमारा अव्याबाध है।' शुक-'भगवन् ! प्रासुक विहार क्या है ? हे शुक ! हम जो आराम में, उद्यान में, देवकुल में, सभा में तथा स्त्री, पशु
और नपुंसक से रहित उपाश्रय में पडिहारी पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि ग्रहण करके विचरते हैं, वह हमारा प्रासुक विहार है।'
शुक परिव्राजक ने प्रश्न किया-'भगवन् ! आपके लिए सरिसवया' भक्ष्य हैं या अभक्ष्य हैं ?' थावच्चापुत्र ने कहा-'हे शुक ! भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी ।' शुक ने पुनः प्रश्न किया-यावत् ! किस अभिप्राय से ऐसा कहते हो कि 'सरिसवया' भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं?' थावच्चापत्र हे शक! 'सरिसवया' दो प्रकार के हैं । मित्रसरिसवया और धान्य-सरिसवया । इनमें जो मित्र-सरिसवया है, वे तीन प्रकार के हैं । साथ जन्मे हुए, साथ बढ़े हुए
और साथ-साथ धूल में खेले हुए । यह तीन प्रकार के मित्र-सरिसवया श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । जो धान्य -सरिसवया हैं, वे दो प्रकार के हैं । शस्त्रपरिणत और अशस्त्रपरिणत । उनमें जो अशस्त्रपरिणत हैं वे श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं । जो शस्त्रपरिणत हैं, वे दो प्रकार के हैं । प्रासुक और अप्रासुक । हे शुक ! अप्रासुक भक्ष्य नहीं
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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