Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक भावशौच दर्भ से और मंत्र से होता है । हे देवानुप्रिय ! हमारे मत के अनुसार जो कोई वस्तु अशुचि होती है, वह सब तत्काल पृथ्वी से मांज दी जाती है और फिर शुद्ध जल से धो ली जाती है । तब अशुचि, शुचि हो जाती है। निश्चय ही जीव जलस्नान से अपनी आत्मा को पवित्र करके बिना विघ्न के स्वर्ग प्राप्त करते हैं।
तत्पश्चात् सुदर्शन, शुक परिव्राजक के धर्म को श्रवण करके हर्षित हुआ । उसने शुक से शौचमूलक धर्म स्वीकार किया । स्वीकार करके परिव्राजकों को विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र से प्रतिलाभित करता हुआ अर्थात् अशन आदि दान करता हुआ रहने लगा । तत्पश्चात् वह शुक परिव्राजक सौगंधिका नगरी से बाहर नीकला । नीकलकर जनपद-विहार से विचरने लगा-देश-देशान्तर में भ्रमण करने लगा । उस काल उस समयमें थावच्चापुत्र नामक अनगार १००० साधुओं के साथ अनुक्रमण से विहार करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते हए, सखे-सखे विचरते हए जहाँ सौगंधिका नामक नगरी थी और जहाँ नीलाशोक नामक उद्यान था, वहाँ पधारे।
थावच्चापुत्र अनगार का आगमन जानकर परीषद् नीकली । सुदर्शन भी नीकला । उसने थावच्चापुत्र अनगार को प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दना-नमस्कार करके वह बोला'आपके धर्म का मूल क्या है ? तब सुदर्शन के इस प्रकार कहने पर थावच्चापुत्र अनगार ने सुदर्शन से कहा-हे सुदर्शन ! धर्म विनयमूलक कहा गया है । यह विनय भी दो प्रकार का कहा है-अगारविनय और अनगार विनय । इनमें जो अगारविनय है, वह पाँच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत और ग्यारह उपासक-प्रतिमा रूप है । अनगार-विनय चतुर्याम रूप है, यथा-समस्त प्राणातिपात से विरमण, समस्त मृषावाद से विरमण, समस्त अदत्तादान से विरमण, समस्त मैथुन और समस्त परिग्रह से विरमण । इसके अतिरिक्त समस्त रात्रि-भोजन से विरमण, यावत् समस्त मिथ्यादर्शन शल्य से विरमण, दस प्रकार का प्रत्याख्यान और बारह भिक्षुप्रतिमाएं । इस प्रकार दो तरह के विनय मूलक धर्म से क्रमशः आठ कर्मप्रकृतियों को क्षय करके जीवे लोक के अग्रभाग में-मोक्ष में प्रतिष्ठित होते हैं । तत्पश्चात् थावच्चापुत्र ने सुदर्शन से कहा-सुदर्शन ! तुम्हारे धर्म का मूल क्या कहा गया है ? सुदर्शन ने उत्तर दियादेवानुप्रिय ! हमारा धर्म शौचमूलक कहा गया है । तब थावच्चापुत्र अनगार ने सुदर्शन से कहा-हे सुदर्शन ! जैसे कुछ भी नाम वाला कोई पुरुष एक बड़े रुधिर से लिप्त वस्त्र को रुधिर से ही धोए, तो हे सुदर्शन ! उस रुधिर से ही धोये जाने वाले वस्त्र की कोई शुद्धि होगी? सुदर्शन ने कहा-यह अर्थ समर्थ नहीं है।
सी प्रकार हे सुदर्शन ! तुम्हारे मतानुसार भी प्राणातिपात से यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से शुद्धि नहीं हो सकती, जैसे उस रुधिरलिप्त और रुधिर से ही धोये जाने वाले वस्त्र की शुद्धि नहीं होती । हे सुदर्शन ! जैसे यथानामक कोई पुरुष एक बड़े रुधिरलिप्त वस्त्र को सज्जी के खार के पानी में भिगोवे, फिर पाकस्थान पर चढ़ावे, चढाकर उष्णता ग्रहण करावे और फिर स्वच्छ जल से धोवे, तो निश्चय हे सुदर्शन ! यह रुधिर से लिप्त वस्त्र, सज्जी खार के पानी में भीगो कर चूल्हे पर चढ़कर, उबलकर और शुद्ध जल से प्रक्षालित होकर शुद्ध हो जाता है ?' (सुदर्शन कहता है) 'हाँ, हो जाता है।' इसी प्रकार हे सुदर्शन ! हमारे धर्म के अनुसार भी प्राणातिपात के विरमण से यावत् मिथ्यादर्शन शल्य के विरमण से शुद्धि होती है, जैसे उस रुधिरलिप्त वस्त्र की यावत् शुद्ध जल से धोये जाने पर शुद्धि होती है।
तत्पश्चात् सुदर्शन को प्रतिबोध प्राप्त हुआ । उसने थावच्चापुत्र को वन्दना की, नमस्कार किया । इस प्रकार कहा-'भगवन् ! मैं धर्म सूनकर उसे जानना चाहता हूँ ।' यावत् वह धर्मोपदेश श्रवण करके श्रमणोपासक को गया, जीवाजीव का ज्ञाता हो गया, यावत् निर्ग्रन्थ श्रमणों को आहार आदि का दान करता हुआ विचरने लगा। तत्पश्चात् शुक परिव्राजक को इस कथा का अर्थ जानकर इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-'सुदर्शन ने शौच-धर्म का परित्याग करके विनयमूल धर्म अंगीकार किया है । अत एव सुदर्शन की दृष्टि का वमन कराना और पुनः
लक धर्म का उपदेश करना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा । उसने ऐसा विचार किया । विचार करके एक हजार परिव्राजकों के साथ जहाँ सौगन्धिका नगरी थी और जहाँ परिव्राजकों का मठ था, वहाँ आया । आकर उसने परिव्राजकों के मठ में उपकरण रखे । तदनन्तर गेरु से रंगे वस्त्र धारण किये हुए वह थोड़े परिव्राजकों के साथ,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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