Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक दिखलाये मार्ग से जहाँ कृष्ण वासुदेव थे, वहाँ आई। दोनों हाथ जोड़कर कृष्ण वासुदेव को बधाया । बधाकर वह महान अर्थ वाली, महामूल्य वाली महान पुरुषों के योग्य और राजा के योग्य भेंट सामने रखी । इस प्रकार बोली
हे देवानुप्रिय ! मेरा थावच्चापुत्र नामक एक ही पुत्र है । वह मुझे इष्ट है, कान्त है, यावत् वह संसार के भय से उद्विग्न होलक अरिहंत अरिष्टनेमि के समीप गृहत्याग कर अनगार-प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता है । मैं उसका निष्क्रमण-सत्कार करना चाहती हूँ । अत एव हे देवानुप्रिय ! प्रव्रज्या अंगीकार करने वाले थावच्चापुत्र के लिए आप छत्र, मुकुट और चामर प्रदान करें, यह मेरी अभिलाषा है । कृष्ण वासुदेव ने थावच्चा गाथापत्नी से कहा-देवानुप्रिये ! तुम निश्चिंत और विश्वस्त रहो । मैं स्वयं ही थावच्चापुत्र बालक का दीक्षा-सत्कार करूँगा । कृष्ण वासुदेव चतुरंगिणी सेना के साथ विजय नामक उत्तम हाथी पर आरूढ़ होकर जहाँ थावच्चा गाथापत्नी का भवन था वहीं आए । थावच्चापुत्र से बोले-हे देवानुप्रिय ! तुम मुण्डित होकर प्रव्रज्या ग्रहण मत करो । मेरी भुजाओं की छाया के नीचे रहकर मनुष्य सम्बन्धी विपुल कामभोगों को भोगो । मैं केवल तुम्हारे ऊपर होकर जाने वाले वायुकाय को रोकने में तो समर्थ नहीं हूँ किन्तु इसके सिवाय देवानुप्रिय को जो कोई भी सामान्य पीड़ा या विशेष पीड़ा उत्पन्न होगी, उस सबका निवारण करूँगा।
तब कृष्ण वासुदेव के इस प्रकार कहने पर थावच्चापुत्र ने कृष्ण वासुदेव से कहा-'देवानुप्रिय ! यदि आप मेरे जीवन का अन्त करनेवाले आते हए मरण को रोक दें, शरीर पर आक्रमण करनेवाली एवं शरीर के रूप-सौन्दर्य का विनाश करनेवाली जरा रोक सकें, तो मैं आपकी भुजाओं की छायामे रह कर मनुष्य सम्बन्धी विपुल कामभोग भोगता हुआ विचरूँ।' थावच्चापुत्र द्वारा इस प्रकार कहने पर कृष्ण वासुदेव ने थावच्चापुत्र से कहा-'हे देवानुप्रिय ! मरण और जरा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता । अतीव बलशाली देव या दानव के द्वारा भी इनका निवारण नहीं किया जा सकता । हाँ, अपने द्वारा उपार्जित पूर्व कर्मों का क्षय ही इन्हें रोक सकता है।' 'तो हे देवानुप्रिय ! मैं अज्ञान, मिथ्यात्व, अविरति और कषाय द्वारा संचित, अपने आत्मा के कर्मों का क्षय करना चाहता हूँ।'
थावच्चापुत्र के द्वारा इस प्रकार कहने पर कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और द्वारिका नगरी के शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर आदि स्थानों में, यावत् श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ़ होकर ऊंची-ऊंची ध्वनि से, ऐसी उद्घोषणा करो-'हे देवानुप्रियो ! संसार के भय से उद्विग्न और जन्म-मरण से भयभीत थावच्चापुत्र अर्हन्त अरिष्टनेमि के निकट मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण करना चाहता है तो हे देवानुप्रिय ! जो राजा, युवराज, रानी, कुमार, ईश्वर, तलवर, कौटुम्बिक, माडंबिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति
वा सार्थवाह दीक्षित होते हुए थावच्चापुत्र के साथ दीक्षा ग्रहण करेगा, उसे कृष्ण वासुदेव अनुज्ञा देते हैं और पीछे रहे उनके मित्र, ज्ञाति, निजक, सम्बन्धी या परिवार में कोई भी दुःखी होगा तो उसके योग और निर्वाह करेंगे कौटुम्बिक पुरुषों ने यह की घोषणा कर दी।
तत्पश्चात् थावच्चापुत्र पर अनुराग होने के कारण एक हजार पुरुष निष्क्रमण के लिए तैयार हुए । वे स्नान करके सब अलंकारों से विभूषित होकर, प्रत्येक-प्रत्येक अलग-अलग हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली पालकियों पर सवार होकर, मित्रों एवं ज्ञातिजनों आदि से परिवृत्त होकर थावच्चापुत्र के समीप प्रकट हुए-आए । तब कृष्ण वासुदेव ने एक हजार पुरुषों को आया देखा । देखकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा (मेघकुमार के दीक्षाभिषेक के वर्णन समान कहना) । चाँदी और सोने के कलशों से उसे स्नान कराया यावत् सर्व अलंकारों से विभूषित किया । थावच्चातुत्र उन हजार पुरुषों के साथ, शिबिका पर आरूढ़ होकर, यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ, द्वारका नगरी के बीचों-बीच होकर नीकला । जहाँ गिरनार पर्वत, नन्दनवन उद्यान, सुरप्रिय यक्ष का यक्षायतन एवं अशोक वृक्ष था, उधर गया । वहाँ जाकर अरिहंत अरिष्टनेमि के छत्र पर छत्र और पताका पर पताका देखता है और विद्याधरों एवं चारण मुनियों को और जृम्भक देवों को नीचे ऊतरते-चढ़ते देखता है, वहीं शिबिका से नीचे उतर जाता है । तत्पश्चात् थावच्चापुत्र ने हजार पुरुषों के साथ स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया, यावत् प्रव्रज्या अंगीकार की । थावच्चापुत्र अनगार हो गया । ईर्यासमिति से युक्त, भाषासमिति से युक्त होकर
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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