Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 38
________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र -६, 'ज्ञाताधर्मकथा ' अध्ययन २ संघाट — श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक सूत्र - ४२ श्री जम्बू स्वामी, श्री सुधर्मा स्वामी से प्रश्न करते हैं- भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने द्वीतिय ज्ञाताध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल उस समय में- जब राजगृह नामक नगर था । (वर्णन) उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था । वह महान् हिमवन्त पर्वत के समान था, इत्यादि उस राजगृह नगर से बाहर ईशान कोण में-गुणशील नामक चैत्य था । (वर्णन) उस गुणशील चैत्य से न बहुत दूर न अधिक समीप, एक भाग में गिरा हुआ जीर्ण उद्यान था । उस उद्यान का देवकुल विनष्ट हो चूका था । उस के द्वारों आदि के तोरण और दूसरे गृह भग्न हो गए थे। नाना प्रकार के गुच्छों, गुल्मों, अशोक आदि की लताओं, ककड़ी आदि की बेलों तथा आम्र आदि के वृक्षों से वह उद्यान व्याप्त था। सैकड़ों सर्पों आदि के कारण वह भय उत्पन्न करता था। उस जीर्ण उद्यान के बहुमध्यदेश भाग में बीचोंबीच एक टूटा-फूटा बड़ा कूप भी था। उस भग्न कूप से न अधिक दूर न अधिक समीप, एक जगह एक बड़ा मालुकाकच्छ था । अंजन के समान कृष्ण और कृष्ण प्रभा वाला था। रमणीय और महामेघों के समूह जैसा था। वह बहुत से वृक्षों, गुच्छों, गुल्मों, लताओं, बेल, तृण, कुशों और ठूंठों से व्याप्त था और चारों ओर से आच्छादित था। वह अन्दर से पोला था और बाहर से गंभीर था, अनेक सैकड़ों हिंसक पशुओं अथवा सर्पों के कारण शंकाजनक था । सूत्र - ४३ राजगृह नगर में धन्य नामक सार्थवाह था । वह समृद्धिशाली था, तेजस्वी था, घर में था, घर में बहुत सा भोजनपानी तैयार होता था । उस धन्य सार्थवाह की पत्नी का नाम भद्रा था। उसके हाथ पैर सुकुमार थे। पाँचों इन्द्रियाँ । हीनता से रहित परिपूर्ण थीं। वह स्वस्तिक आदि लक्षणों तथा तिल मसा आदि व्यंजनों के गुणों से युक्त थीं । मान, उन्मान और प्रमाण से परिपूर्ण थी । अच्छी तरह उत्पन्न हुए- सुन्दर सब अवयवों के कारण वह सुन्दरांगी थी । उसका आकार चन्द्रमा के समान सौम्य था। वह अपने पति के लिए मनोहर थी। देखने में प्रिय लगती थी । सुरूपवती थी। मुट्ठी में समा जाने वाला उसका मध्य भाग त्रिवलि से सुशोभित था। कुण्डलों से उसके गंडस्थलों की रेखा घिसती रहती थी। उसका मुख पूर्णिमा के चन्द्र के समान सौम्य था। वह शृंगार का आगार थी। उसका वेष सुन्दर था । यावत् वह प्रतिरूप थी मगर वह वन्ध्या थी, प्रसव करने के स्वभाव से रहित थी । जाने और कूर्पर की ही माता थी। सूत्र - ४४ उस धन्य सार्थवाह का पंथक नामक एक दास चेटक था। वह सर्वांग सुन्दर था, माँस से पुष्ट था और बालकों को खेलाने में कुशल था । वह धन्य सार्थवाह राजगृह नगर में बहुत से नगर के व्यापारियों, श्रेष्ठियों और सार्थवाहों के तथा अठारहों श्रेणियों और प्रश्रेणियों के बहुत से कार्यों में, कुटुम्बों में कुटुम्ब सम्बन्धी विषयों में और मंत्रणाओं में यावत् चक्षु के समान मार्गदर्शक था, अपने कुटुम्ब में भी बहुत से कार्यों में यावत् चक्षु समान था । सूत्र - ४५ उस राजगृह में विजय नामक एक चोर था । वह पापकर्म करने वाला, चाण्डाल के समान रूपवाला, अत्यन्त भयानक और क्रूर कर्म करने वाला था। क्रुद्ध हुए पुरुष के समान देदीप्यमान और लाल उसके नेत्र थे । उसकी दाढ़ी या दाढ़े अत्यन्त कठोर, मोटी, विकृत और बीभत्स थीं । उसके होठ आपस में मिलते नहीं थे, उसके मस्तक के केश हवा से उड़ते रहते थे, बिखरे रहते थे और लम्बे थे। वह भ्रमर और राहु के समान काला था। वह दया और पश्चात्ताप से रहित था। दारुण था और इसी कारण भय उत्पन्न करता था। वह नृशंस नरसंघातक था। उसे प्राणियों पर अनुकम्पा नहीं थी वह साँप की भाँति एकान्त दृष्टि वाला था, वह छूरे की तरह एक धार वाला था, वह गिद्ध की तरह माँस का लोलुप था और अग्नि के समान सर्वभक्षी था, जल के समान सर्वग्राही था, वह मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद" Page 38

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