Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा '
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक
तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह से आज्ञा पाई हुई भद्रा सार्थवाही हृष्ट-तुष्ट हुई । यावत् विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करके यावत् स्नान तथा बलिकर्म करके यावत् पहनने और ओढ़ने का गीला वस्त्र धारण करके जहाँ नागायतन आदि थे, वहाँ आई । यावत् धूप जलाई तथा बलिकर्म एवं प्रणाम किया । प्रणाम करके जहाँ पुष्करिणी थी, वहाँ आई । आने पर उन मित्र, ज्ञाति यावत् नगर की स्त्रियों ने भद्रा सार्थवाही को सर्व आभूषणों से अलंकृत किया। तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन एवं नगर की स्त्रियों के साथ विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का यावत् परिभोग करके अपने दोहद को पूर्ण किया । पूर्ण करके जिस दिशा से वह आई थी, उसी दिशा में लौट गई। तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही दोहद पूर्ण करके सभी कार्य सावधानी से करती तथा पथ्य भोजन करती हुई यावत् उस गर्भ को सुखपूर्वक वहन करने लगी । तत्पश्चात् उस भद्रा सार्थवाही ने नौ मास सम्पूर्ण हो जाने पर और साढ़े सात दिन-रात व्यतीत हो जाने पर सुकुमार हाथों-पैरों वाले बालक का प्रसव किया।
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तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ने पहले दिन जातकर्म नामक संस्कार किया करके उसी प्रकार यावत् अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार तैयार करवाया तैयार करवाकर उसी प्रकार मित्र, ज्ञातिजनों आदि को भोजन कराकर इस प्रकार का गौण अर्थात् गुणनिष्पन्न नाम रखा क्योंकि हमारा यह पुत्र बहुत-सी नागप्रतिमाओं यावत् तथा वैश्रमण प्रतिमाओं की मनीती करने से उत्पन्न हुआ है, उस कारण हमारा यह पुत्र देवदत्त' नाम से हो, अर्थात् इसका नाम 'देवदत्त' रखा जाए । तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ने उन देवताओं की पूजा की, उन्हें दान दिया, प्राप्त धन का विभाग किया और अक्षयनिधि की वृद्धि की अर्थात् मनौती के रूप में पहले जो संकल्प किया था उसे पूरा किया |
सूत्र - ४८
तत्पश्चात् वह पंथन नामक दास चेटक देवदत्त बालक का बालाग्रही नियुक्त हुआ। वह बालक देवदत्त को कमर में लेता और लेकर बहुत-से बच्चों, बच्चियों, बालकों, बालिकाओं, कुमारों और कुमारियों के साथ, उनसे परिवृत्त होकर खेलता रहता था। भद्रा सार्थवाही ने किसी समय स्नान किये हुए, बलिकर्म, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किये हुए तथा समस्त अलंकारों से विभूषित हुए देवदत्त बालक को दास चेटक पंथक के हाथ में सौंपा। पंथक दास चेटक ने देवदत्त बालक को लेकर अपनी कटि में ग्रहण किया । वह अपने घर से बाहर नीकला । बहुतसे बालकों, बालिकाओं, बच्चों, बच्चिओं, कुमारों और कुमारिकाओं से परिवृत्त होकर राजमार्ग में आया । देवदत्त बालक को एकान्त में बिठाकर बहुसंख्यक बालकों यावत् कुमारिकाओं के साथ, असावधान होकर खेलने लगा।
इसी समय विजय चोर राजगृह नगर के बहुत-से द्वारों एवं अपद्वारों आदि को यावत् देखता हुआ, उनकी मार्गणा करता हुआ, गवेषणा करता हुआ, जहाँ देवदत्त बालक था, वहाँ आ पहुँचा । आकर देवदत्त बालक को सभी आभूषणों से भूषित देखा देखकर बालक देवदत्त के आभरणों और अलंकारों से मूर्च्छित हो गया, ग्रथित हो गया, गृद्ध हो गया और अध्युपपन्न हो गया । उसने दास चेटक पंथक को बेखबर देखा और चारों दिशाओं का अवलोकन किया। फिर बालक देवदत्त को उठाकर कांख में दबा लिया । ओढ़ने के कपड़े से छिपा लिया । फिर शीघ्र, त्वरित, चपल और उतावल के साथ राजगृह नगर से बाहर नीकल गया । जहाँ जीर्ण उद्यान और जहाँ टूटाफूटा कूआ था, वहाँ पहुँचा । देवदत्त बालक को जीवन से रहित कर दिया । उसके सब आभरण और अलंकार ले लिए । फिर बालक देवदत्त के निर्जीव शरीर को उस भग्न कूप में पटक दिया। इसके बाद वह मालुकाकच्छ में घूस गया और निश्चल निस्पन्द और मौन रहकर दिन समाप्त होने की राह देखने लगा ।
सूत्र ४९
तत्पश्चात् वह पंथक नामक दास चेटक थोड़ी देर बाद जहाँ बालक देवदत्त को बिठाया था, वहाँ पहुँचा । उसने बालक देवदत्त को उस स्थान पर न देखा । तब वह रोता, चिल्लाता, विलाप करता हुआ सब जगह उसकी ढूंढ-खोज करने लगा । मगर कहीं भी उसे बालक देवदत्त की खबर न लगी, छींक वगैरह का शब्द न सुनाई दिया,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद"
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