Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 45
________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक अनुक्रम से चलते हुए, जहाँ राजगृह नगर था और जहाँ गुणशील चैत्य था, यथायोग्य उपाश्रय की याचना करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे-रहे । उनका आगमन जानकर परिषद नीकली। धर्मघोष स्थविर ने धर्मदेशना दी । तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को बहुत लोगों से यह अर्थ सूनकर और समझकर ऐसा अध्यवसाय, अभिलाष, चिन्तन एवं मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ-'उत्तम जाति से सम्पन्न स्थविर भगवान यहाँ आए हैं, यहाँ प्राप्त हुए हैं-आ पहुँचे हैं । तो मैं जाऊं, स्थविर भगवान को वन्दन करूँ, नमस्कार करूँ । इस प्रकार विचार करके धन्य ने स्नान किया, यावत् शुद्ध-साफ तथा सभा में प्रवेश करने योग्य उत्तम मांगलिक वस्त्र धारण किये। फिर पैदल चलकर जहाँ गुणशील चैत्य था और जहाँ स्थविर भगवान थे, वहाँ पहुँचा । वन्दना की, नमस्कार किया । स्थविर भगवान ने धन्य सार्थवाह को विचित्र धर्म का उपदेश दिया, अर्थात् ऐसे धर्म का उपदेश दिया जो जिनशासन के सिवाय अन्यत्र सुलभ नहीं है। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने धर्मोपदेश सूनकर इस प्रकार कहा-'हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। यावत वह प्रव्रजित हो गया। यावत बहत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय पालन कर, आहार को प्रत्याख्यात करके एक मास की संलेखना करके, अनशन से साठ भक्तों को त्याग कर, कालमास में काल करके सौधर्म देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न हआ । सौधर्म देवलोक में किन्हीं-किन्हीं देवों की चार पल्योपम की स्थिति कही है। धन्य नामक देव की भी चार पल्योपम की स्थिति कही है । वह धन्य नामक देव आयु के दलिकों का क्षय करके, आयुकर्म की स्थिति का क्षय करके तथा भव का क्षय करके, देह का त्याग करके अनन्तर ही महाविदेह क्षेत्र में सिद्धि प्राप्त करेगा यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगा। सूत्र -५४ जम्ब ! जैसे धन्य सार्थवाह ने 'धर्म है। ऐसा समझकर या तप, प्रत्यपकार, मित्र आदि मानकर विजय चोर को उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में से संविभाग नहीं किया था, सिवाय शरीर की रक्षा करने के । इसी प्रकार हे जम्बू ! हमारा जो साधु या साध्वी यावत् प्रव्रजित होकर स्नान, उपामर्दन, पुष्प, गंध, माला, अलंकार आदि शृंगार को त्याग करके अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार करता है, सो इस औदारिक शरीर के वर्ण के लिए, रूप के लिए या विषय-सुख के लिए नहीं करता । ज्ञान, दर्शन और चारित्र को वहन करने के सिवाय उसका अन्य कोई प्रयोजन नहीं होता । वह साधुओं, साध्वीयों, श्रावकों और श्राविकाओं द्वारा इस लोक में अर्चनीय वह सर्व प्रकार से उपासनीय होता है । परलोक में भी वह हस्तछेदन, कर्णछेदन और नासिकाछेदन को तथा इसी प्रकार हृदय के उत्पाटन एवं वृषणों के उत्पाटन और उद्बन्धन आदि कष्टों को प्रपात नहीं करेगा । वह अनादि अनन्त दीर्घमार्ग वाले संसार रूप अटवी को पार करेगा, जैसे धन्य सार्थवाह ने किया । हे जम्बू ! भगवान महावीर ने द्वीतिय ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है। अध्ययन-२ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 45

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