Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक इन अंडों को लेकर अपनी उत्तम जाति की मुर्गियों के अंडों में डाल दो । उन दासपुत्रों ने उन दोनों अंडों को मुर्गियों के अंडों मे मिला दिया । तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र देवदत्ता गणिका के साथ सुभूमिभाग उद्यान में उद्यान की शोभा का अनुभव करते हुए विचरण करके उसी यान पर आरूढ़ होकर जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ देवदत्ता गणिका के घर आए । देवदत्ता गणिका के घर में प्रवेश किया । देवदत्ता गणिका को विपुल जीविका के योग्य प्रीतिदान दिया। उसका सत्कार-सम्मान किया । दोनों देवदत्ता के घर से बाहर नीकलकर जहाँ अपने-अपने घर थे, वहाँ आए। आकर अपने कार्य में संलग्न हो गए।
सूत्र-६०
तत्पश्चात् उनमें जो सागरदत्त का पुत्र सार्थवाह दारक था, वह कल सूर्य के देदीप्यमान होने पर जहाँ वनमयूरी का अंडा था, वहाँ आया । आकर उस मयूरी अंडे में शंकित हुआ, उसके फल की आकांक्षा करने लगा कि कब इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होगी? विचिकित्सा को प्राप्त हुआ, भेद को प्राप्त हुआ, कलुषता को प्राप्त हुआ। अत एव वह विचार करने लगा कि मेरे इस अंडे में से क्रीड़ा करने का मयूरी-बालक उत्पन्न होगा अथवा नहीं होगा ? वह बार-बार उस अंडे को उद्वर्त्तन करने लगा, आसारण करने लगा संसारण करने लगा, चलाने लगा, हिलाने लगा, करने लगा, भूमि को खोदकर उसमें रखने लगा और बार-बार उसे कान के पास ले जाकर बजाने लगा । तदनन्तर वह मयूरी-अंडा बार-बार उद्वर्त्तन करने से यावत् निर्जीव हो गया । सागरदत्त का पुत्र सार्थवाह दारक किसी समय जहाँ मयूरी का अंडा था वहाँ आया । उस मयूरी-अंडे को उसने पोचा देखा । देखकर 'ओह ! यह मयूरी का बच्चा मेरी क्रिया करने के योग्य न हुआ' ऐसा विचार करके खेदखिन्नचित्त होकर चिन्ता करने लगा। उसके सब मनोरथ विफल हो गए।
आयुष्मन् श्रमणों ! इस प्रकार जो साधु या साध्वी आचार्य या उपाध्याय के समीप प्रव्रज्या ग्रहण करके पाँच महाव्रतों के विषय में अथवा षट जीवनिकाय के विषय में अथवा निर्ग्रन्थ प्रवचन के विषय में शंका करता है या कलुषता को प्राप्त होता है, वह इसी भव में बहुत-से साधुओं, साध्वीओं, श्रावकों और श्राविकाओं के द्वारा हीलना करने योग्य-मन से निन्दा करने योग्य, समक्ष में ही गर्दा करने योग्य और परिभव के योग्य होता है। परभव में भी बहुत दंड पाता है यावत् परिभ्रमण करेगा। सूत्र - ६१
जिनदत्त का पुत्र जहाँ मयूरी का अंडा था, वहाँ आया । आकर उस मयूरी के अंडे के विषय में निःशंक रहा। 'मेरे इस अंडे में से क्रड़ा करने के लिए बढ़िया गोलाकार मयूरी-बालक होगा' इस प्रकार निश्चय करके, उस मयूरी के अंडे को उसने बार-बार उलटा-पलटा नहीं यावत् बजाया नहीं आदि । इस कारण उलट-पलट न करने से
और न बजाने से उस काल और उस समय में अर्थात् समय का परिपाक होने पर वह अंडा फूटा और मयूरी के बालक का जन्म हुआ । तत्पश्चात् जिनदत्त के पुत्र ने उस मयूरी के बच्चे को देखा । देखकर हृष्ट-तुष्ट होकर मयूरपोषकों को बुलाया । इस प्रकार कहा-देवानप्रियों ! तम मयर के इस बच्चे को अनेक मयर कोप पदार्थों से अनुक्रम से संरक्षण करते हए और संगोपन करते हए बडा करो और नृत्यकला सिखलाओ। तब उस मयूरपोषकों ने जिनदत्त के पुत्र की यह बात स्वीकार की । उस मयूर-बालक को ग्रहण किया । ग्रहण करके जहाँ अपना घर था वहाँ आए । आकर उस मयूर-बालक को यावत् नृत्य कला सिखलाने लगे।
तत्पश्चात् मयूरी का बच्चा बचपन से मुक्त हुआ । उसमें विज्ञान का परिणमन हुआ । युवावस्था को प्राप्त हआ । लक्षणों और तिल आदि व्यंजनों के गुणों से युक्त हआ । चौड़ाई रूप मान, स्थूलता रूप उन्मान और लम्बाई रूप प्रमाण से उसके पंखों और पिच्छों का समूह परिपूर्ण हुआ । उसके पंख रंग-बिरंगे हो गए । उनमें सैकड़ों चन्द्रक थे । वह नीले कंठ वाला और नृत्य करने के स्वभाव वाला हुआ । एक चुटकी बजाने से अनेक प्रकार के सैकड़ों केकारव करता हुआ विचरण करने लगा । तत्पश्चात् मयूरपालकों ने उस मयूर के बच्चे को बचपन से मुक्त यावत् केकारव करता हुआ देखकर उस मयूर-बच्चे को ग्रहण किया । जिनदत्त के पुत्र के पास ले गए । तब
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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