Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक उत्कंचन में वंचन में, माया में, निकृति में, कूट में था । साति-संप्रयोग में निपुण था । वह चिरकाल में नगर में उपद्रव कर रहा था । उसका शील, आचार और चरित्र अत्यन्त दूषित था । वह द्यूत से आसक्त था, मदिरापान में अनुरत था, अच्छा भोजन करने में गृद्ध था और माँस में लोलुप था । लोगों के हृदय को विदारण कर देने वाला, साहसी सेंध लगाने वाला, गुप्त कार्य करने वाला, विश्वासघाती और आग लगा देने वाला था । तीर्थ रूप देवद्रोणी आदि का भेदन करके उसमें से द्रव्य हरण करने वाला और हस्तलाघव वाला था । पराया द्रव्य हरण करने में सदैव तैयार रहता था, तीव्र वैर वाला था । वह विजय चोर राजगृह नगर के बहुत से प्रवेश करने के मार्गों, नीकलने के मार्गों, दरवाजों, पीछे की खिड़कियों, छेड़ियों, किलों की छोटी खिड़कियों, मोरियों, रास्ता मिलने की जगहों, रास्ते अलग-अलग होने के स्थानों, जुआ के अखाड़ों, मदिरापान के अड्डों, वेश्या के घरों, उनके घरों के द्वारों, चोरों के घरों, शृंगाटकों-सिंघाड़े के आकार के मार्गों, तीन मार्ग मिलने के स्थानों, चौकों, अनेक मार्ग मिलने के स्थानों, नागदेव के गहों, भूतों के गहों, यक्षगहों, सभास्थानों, प्याउओं, दकानों ओर शन्यगहों को देखता फिरता था । उनकी मार्गणा करता था-उनकी गवेषणा करता था, विषम-रोग की तीव्रता, इष्टजनों के वियोग, व्यसन, अभ्युदय, उत्सवों, मदन त्रयोदशी आदि तिथियों, क्षण, यज्ञ, कौमुदी आदि पर्वणी में, बहुत से लोग मद्यपान से मत्त हो गए हों, प्रमत्त हुए हों, अमुक कार्य में व्यस्त हों, विविध कार्यों में आकुल-व्याकुल हों, सुख में हों, दुःख में हों, परदेश गए हों, परदेश जाने की तैयारी में हों, ऐसे अवसरों पर वह लोगों के छिद्र का, विरह का और अन्तर का विचार करता और गवेषणा करता रहता था।
वह विजय चोर राजगृह नगर के बाहर भी आरामों में अर्थात् दम्पती के क्रीड़ा करने के लिए माधवीलतागृह आदि जहाँ बने हों ऐसे बगीचों में, चौकोर बावड़ियों में, कमल वाली पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, सरोवरों की पंक्तियों में, सर-सर पंक्तियों में, जीर्ण उद्यानों में, भग्न कूपों में, मालुकाकच्छों की झाड़ियों में, स्मशानों में, पर्वत की गुफाओं में, लयनों तथा उपस्थानों में बहुत लोगों के छिद्र आदि देखता रहता था। सूत्र -४६
धन्य सार्थवाह की भार्या भद्रा एक बार कदाचित् मध्यरात्रि के समय कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ता कर रही थी कि उसे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ । बहुत वर्षों से मैं धन्य सार्थवाह के साथ, शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध और रूप यह पाँचों प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी कामभोग भोगती हुई विचर रही हूँ, परन्तु मैंने एक भी पुत्र या पुत्री को जन्म नहीं दिया । वे माताएं धन्य हैं, यावत् उन माताओं को मनुष्य-जन्म और जीवने का प्रशस्त-भला फल प्राप्त हुआ है, जो माताएं, मैं मानती हूँ कि, अपनी कोख से उत्पन्न हुए, स्तनों का दूध पीने में लुब्ध, मीठे बोल बोलने वाले, तुतला-तुतला कर बोलने वाले और स्तन के मूल से काँख के प्रदेश की ओर सरकने वाले मुग्ध बालकों को स्तनपान कराती हैं और फिर कमल के समान कोमल हाथों से उन्हें पकड़कर अपनी गोद में बिठलाती हैं और बारबार अतिशय प्रिय वचन वाले मधुर उल्लाप देती हैं । मैं अधन्य हूँ, पुण्यहीन हूँ, कुलक्षणा हूँ और पापिनी हूँ कि इनमें से एक भी न पा सकी।
अत एव मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि कल रात्रि के प्रभात रूप में प्रकट होने पर और सूर्योदय होने पर धन्य सार्थवाह से पूछकर, आज्ञा प्राप्त करके मैं बहुत-सा अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार तैयार कराके बहुत-से पुष्प, वस्त्र, गंधमाला और अलंकार ग्रहण करके, बहुसंख्यक मित्र, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धीयों और परिजनों की महिलाओं के साथ-उनसे परिवृत्त होकर, राजगृह नगर के बाहर जो नाग, भूत, यक्ष, इन्द्र, स्कन्द, रूद्र, शिव और वैश्रमण आदि देवों के आयतन हैं और उनमें जो नाग की प्रतिमा यावत् वैश्रमण की प्रतिमाएं हैं, उनकी बहुमूल्य पुष्पादि से पूजा करके घुटने और पैर झुकाकर इस प्रकार कहूँ-'हे देवानुप्रिय ! यदि मैं एक भी पुत्र या पुत्री को जन्म दूंगी तो मैं तुम्हारी पूजा करूँगी, पर्व के दिन दान दूंगी, भाग-द्रव्य के लाभ का हिस्सा दूंगी और तुम्हारी अक्षय-निधि की वृद्धि करूँगी।' इस प्रकार अपनी इष्ट वस्तु की याचना करूँ ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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