Book Title: Agam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 33
________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक हे मेघ ! तुमने पैर से शरीर खुजाऊं ऐसा सोचकर पैर उपर ऊठाया । इसी समय उस खाली हुई जगह में, अन्य बलवान् प्राणियों द्वारा प्रेरीत-धकियाया हुआ एक शशक प्रविष्ट हो गया । तब हे मेघ ! तुमने पेर खुजा कर सोचा कि मैं पैर नीचे रखू, परन्तु शशक को पैर की जगह में घूसा हुआ देखा । देखकर प्राणों की अनुकम्पा से, वनस्पति रूप भूतों की अनुकम्पा से, जीवों की अनुकम्पा से तथा सत्त्वों की अनुकम्पा से वह पैर अधर ही उठाए रखा । तब उस प्राणानुकम्पा यावत् सत्त्वानुकम्पा से तुमने संसार परीत किया और मनुष्यायु का बन्ध किया । वह दावानल अढ़ाई अहोरात्र पर्यन्त उस वन को जला कर पूर्ण हो गया, उपरत हो गया, उपशान्त हो गया, बुझ गया । तब वह बहुत से सिंह यावत् चिल्लनक आदि पूर्वोक्त प्राणीयों ने उन वन-दावानल को पूर्ण हुआ यावत् बुझा हुआ देखा और देखकर वे अग्नि के भय से मुक्त हुए । वे प्यास एवं भूख से पीड़ित होते हुए उस मंडल से बाहर नीकले और सब दिशाओं और विदिशाओं में फैल गए । हे मेघ ! उस समय तुम जीर्ण, जरा से जर्जरीत शरीर वाले, शिथिल एवं सलों वाली चमड़ी से व्याप्त गात्र वाले, दुर्बल, थके हुए, भूखे-प्यासे, शारीरिक शक्ति से हीन, सहारा न होने से निर्बल, सामर्थ्य से रहित और चलने फिरने की शक्ति से रहित एवं ठंठ की भाँति स्तब्ध रह गए। 'मैं वेग से चलूँ ऐसा विचार कर ज्यों ही पैर पसारा कि विद्युत से आघात पाए हए रजतगिरि के शिखर के समान तुम धड़ाम से धरती पर गिर पड़े। तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम्हारे शरीर में उत्कट वेदना उत्पन्न हई । शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया और शरीर में जलन होने लगी। तुम ऐसी स्थिति में रहे । तब हे मेघ ! तुम उस उत्कट यावत् दुस्सह वेदना को तीन रात्रि-दिवस पर्यन्त भोगते रहे । अन्त में सौ वर्ष की पूर्ण आयु भोगकर इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष में राजगृह नगर में श्रेणिक राजा की धारिणी देवी की कुंख में कुमार के रूप में उत्पन्न हुए। सूत्र - ३८ तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम अनुक्रम से गर्भवास से बाहर आए-तुम्हारा जन्म हुआ । बाल्यावस्था से मुक्त हुए और युवावस्था को प्राप्त हुए । तब मेरे निकट मुण्डित होकर गृहवास से अनगार हुए । तो हे मेघ ! जब तुम तिर्यंच योनिरूप पर्याय को प्राप्त थे और जब तुम्हें सम्यक्त्व-रत्न का लाभ भी नहीं हुआ था, उस समय भी तुमने प्राणियों की अनुकम्पा से प्रेरीत होकर यावत् अपना पैर अधर ही रखा था, नीचे नहीं टिकाया था, तो फिर हे मेघ ! इस जन्म में तुम विशाल कुल में जन्मे हो, तुम्हें उपघात से रहित शरीर प्राप्त हुआ है । प्राप्त हुई पाँचों इन्द्रियों का तुमने दमन किया है और उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम से युक्त हो और मेरे समीप मुण्डित होकर गृहवास का त्याग कर अगेही बने हो, फिर भी पहली और पीछली रात्रि के समय श्रमण निर्ग्रन्थ वाचना के लिए यावत् धर्मानुयोग के चिन्तन के लिए तथा उच्चार-प्रस्रवण के लिए आते-जाते थे, उस समय तुम्हें अनेक हाथ का स्पर्श हुआ, पैर का स्पर्श हुआ, यावत् रजकणों से तुम्हारा शरीर भर गया, उसे तुम सम्यक् प्रकार से सहन न कर सके । बिना क्षुब्ध हुए सहन न कर सके । अदीनभाव से तितिक्षा न कर सके । शरीर को निश्चल रखकर सहन न कर सके तत्पश्चात् मेघकुमार अनगार को श्रमण भगवान महावीर के पास से यह वृत्तान्त सून-समझ कर, शुभ परिणामों के कारण, प्रशस्त अध्यवसायों के कारण, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं के कारण और जातिस्मरण को आवृत्त करने वाले ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के कारण, ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए, संज्ञी जीवों को प्राप्त होने वाला जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । उससे मेघ मुनि ने अपना पूर्वोक्त वृत्तान्त सम्यक् प्रकार से जान लिया । तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के द्वारा मेघकुमार को पूर्व वृत्तान्त स्मरण करा देने से दुगुना संवेग प्राप्त हुआ । उसका मुख आनन्द के आँसुओं से परिपूर्ण हो गया । हर्ष के कारण मेघधारा से आहत कदंबपुष्प की भाँति रोम विकसित हो गए। उसने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन किया, नमस्कार किया । वन्दननमस्कार करके इस प्रकार कहा-'भन्ते ! आज से मैंने अपने दोनों नेत्र छोडकर समस्त शरीर श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए समर्पित किया। इस प्रकार कहकर मेघकुमार ने पुनः श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया । वन्दन-नमस्कार करके इस भाँति कहा-'भगवन् ! मेरी ईच्छा है कि अब आप स्वयं ही दूसरी बार मुझे प्रव्रजित मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 33

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