Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 14
________________ आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक भी कहने चाहिए । जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों के आहारादि के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है, उसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तक के जीवों के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए। पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों के आहारादि के सम्बन्ध में कथन भी नैरयिकों के समान समझना चाहिए; केवल क्रियाओं में भिन्नता है। भगवन् ! क्या सभी पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीव समानक्रियावाले हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं ? गौतम ! पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीव तीन प्रकार के हैं. यथा सम्यग्दष्टि. मिथ्यादष्टि और सम्यगमिथ्यादष्टि । उनमें जो सम्यग्दष्टि हैं. वे दो प्रकार के हैं. असंयत और संयतासंयत। संयतासंयत हैं, उन्हें तीन क्रियाएं लगती हैं। आरम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया । उनमें जो असंयत हैं, उन्हें अप्रत्याख्यानी सहित चार क्रियाएं लगती हैं। जो मिथ्यादृष्टि हैं तथा सम्यगमिथ्यादृष्टि हैं, उन्हें पाँचों क्रियाएं लगती हैं मनुष्यों का आहारादि सम्बन्धित निरूपण नैरयिकों के समान समझना चाहिए । उनमें अन्तर इतना ही है कि जो महाशरीर वाले हैं, वे बहतर पुद्गलों का आहार करते हैं, और वे कभी-कभी आहार करते हैं, इसके विपरीत जो अल्पशरीर वाले हैं, वे अल्पतर पुद्गलों का आहार करते हैं, और बार-बार करते हैं । वेदनापर्यन्त सब वर्णन नारकों के समान समझना। "भगवन् ! क्या सब मनुष्य समान क्रिया वाले हैं ?" गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! यह आप किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! मनुष्य तीन प्रकार के हैं; सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि । उनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे तीन प्रकार के हैं, संयत, संयतासंयत और असंयत । उनमें जो संयत हैं, वे दो प्रकार के हैं, सरागसंयत और वीतरागसंयत । उनमें जो वीतरागसंयत हैं, वे क्रियारहित हैं, तथा जो इनमें सरागसंयत हैं, वे भी दो प्रकार के हैं, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । उनमें जो अप्रमत्तसंयत हैं, उन्हें एक मायाप्रत्यया क्रिया लगती है । उनमें जो प्रमत्तसंयत हैं, उन्हें दो क्रियाएं लगती हैं, आरम्भिकी और मायाप्रत्यया । तथा उनमें जो संयतासंयत हैं, उन्हें आदि की तीन क्रियाएं लगती हैं, आरम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया । असंयतों को चार क्रियाएं लगती हैं-आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यानी क्रिया । मिथ्यादृष्टियों को पाँचों क्रियाएं लगती हैं-आरम्भिकी. पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानी क्रिया और मिथ्यादर्शनप्रत्यया । सम्यगमिथ्यादृष्टियों को भी यह पाँचों क्रियाएं लगती हैं। वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक के आहारादि के सम्बन्ध में सब वर्णन असुरकुमारों के समान समझना चाहिए । विशेषता यह कि इनकी वेदना में भिन्नता है। ज्योतिष्क और वैमानिकों में जो मायी-मिथ्यादृष्टि के रूप में उत्पन्न हुए हैं, वे अल्पवेदना वाले हैं, और जो अमायी सम्यग्दृष्टि के रूप में उत्पन्न हुए हैं, वे महावेदना वाले होते हैं, ऐसा कहना चाहिए। भगवन् ! क्या लेश्या वाले समस्त नैरयिक समान आहार वाले होते हैं ? हे गौतम ! औधिक, सलेश्य एवं शुक्ललेश्या वाले इन तीनों का एक गम-पाठ कहना चाहिए । कृष्णलेश्या और नीललेश्या वालों का एक समान पाठ कहना चाहिए, किन्तु उनकी वेदना में इस प्रकार भेद है-मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्न और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक कहने चाहिए । तथा कृष्णलेश्या और नीललेश्या (के सन्दर्भ) में मनुष्यों के सरागसंयत, वीतरागसंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत (भेद) नहीं कहना चाहिए । तथा कापोतलेश्या में भी यही पाठ कहना चाहिए । भेद यह है कि कापोतलेश्या वाले नैरयिकों को औधिक दण्डक के समान कहना चाहिए । तेजोलेश्या और पद्मलेश्या वालों को भी औधिक दण्डक के समान कहना चाहिए । विशेषता यह है कि इन मनुष्यों में सराग और वीतराग का भेद नहीं कहना चाहिए; क्योंकि तेजोलेश्या और पद्मलेश्या वाले मनुष्य सराग ही होते हैं । सूत्र-२८ दुःख (कर्म) और आयुष्य उदीर्ण हो तो वेदते हैं । आहार, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया और आयुष्य, इन मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 14

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