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७. [ प्र. ] अह भंते ! पेज्जे दोसे कलहे जाव मिच्छादंसणसल्ले, एस णं कइवण्णे. ?
[ उ. ] जहेव कोहे तहेव जाव चउफासे ।
७. [प्र.] भगवन् ! प्रेम-राग, द्वेष, कलह से लेकर यावत् मिथ्यादर्शन - शल्य तक ये (सभी पापस्थानों) कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले कहे हैं ?
[उ.] ( गौतम ! ) जिस प्रकार क्रोध के लिए ( कथन किया था उसी प्रकार) इनमें भी, यावत् चार स्पर्श हैं ( यहाँ तक कहना चाहिए । )
7. [Q.] Bhante ! Of how many colours (varna), how many (gandh), how many tastes ( rasa) and how many touches ( sparsh) these are said to be-preyas or raag (attachment inspired by love), dvesh (aversion), kalah (dispute)... and so on up to... mithyaadarshan shalya (the thorn of wrong belief or unrighteousness)?
[Ans.] Gautam ! As stated about krodh... and so on up to... four touches (sparsh).
विवेचन- - प्रस्तुत सात सूत्रों के अन्तर्गत बताया गया है कि प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक ये अठारह पापस्थान पाँच वर्ण, दो गंध, पाँच रस और चार स्पर्श (स्निग्ध, रुक्ष, शीत और उष्ण) वाले होते हैं ।
प्राणातिपात — जीव हिंसा से जनित कर्म प्राणातिपात कहलाता है । मृषावाद - क्रोध, लोभ, भय अथवा हास्य के वशीभूत होकर असत्य, अप्रिय, अहितकर, विघातक वचन कहना मृषावाद है। अदत्तादान - स्वामी की अनुमति, इच्छा या सम्मति के बिना कुछ भी लेना अदत्तादान है। मैथुन - विषयवासना से प्रेरित स्त्री-पुरुष के संयोग को मैथुन कहते हैं। परिग्रह - धन, कांचन, मकान आदि बाह्य परिग्रह है और ममता - मूर्च्छा आदि आभ्यन्तर परिग्रह है ।
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क्रोध - क्रोध रूप परिणाम को उत्पन्न करने वाले कर्म को क्रोध कहते हैं । (२) कोप- क्रोध के उदय से अपने स्वभाव से चलित होना । (३) रोष - क्रोध की परम्परा । (४) दोष - अपने आपको और
दूसरों को दोष देना । (५) अक्षमा - दूसरे के द्वारा किए हुए अपराध को सहन नहीं करना । (६) संज्वलन - बार-बार क्रोध से प्रज्वलित होना । (७) करना । (८) चाण्डिक्य- रौद्र रूप धारण करना । (९) (१०) विवाद - परस्पर विरोधी बात कहकर झगड़ा या शब्द हैं।
कलह - वाक् - युद्ध करते हुए परस्पर क्लेश भण्डन - दण्ड आदि से परस्पर लड़ाई करना विवाद करना। ये सभी क्रोध के पर्यायवाची
(२)
मान और उसके पर्यायवाची शब्द - (१) मान-अपने आपको दूसरों से उत्कृष्ट समझना । मद-जाति आदि का अहंकार करना । (३) दर्प - घमण्ड में चूर होना । (४) स्तम्भ - नम्र न - स्तम्भ की भाँति कठोर बने रहना । (५) गर्व - अहंकार । (६) अत्युत्क्रोश - स्वयं को दूसरों से
होना
बारहवाँ शतक : पंचम उद्देशक
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Twelfth Shatak: Fifth Lesson
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