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आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह धन्य ध्यान में आप विराजे, देख रहे प्रभु आतमराम। ज्ञाता-दृष्टा अहो जिनेश्वर, परमज्योतिमय आनन्दधाम ।। रत्नत्रय आभूषण साँचे, जड़ आभूषण का क्या काम? राग-द्वेष नि:शेष हुए हैं, वस्त्र-शस्त्र का लेश न नाम । तीन लोक के स्वयं मुकुट हो, स्वर्ण मुकुट का है क्या काम ? प्रभु त्रिलोक के नाथ कहाओ, फिर भी निज में ही विश्राम ॥ भव्य निहारें अहो आपको, आप निहारें अपनी ओर। धन्य आपकी वीतरागता, प्रभुता का प्रभु ओर न छोर। आप नहीं देते कुछ भी पर, भक्त आप से ले लेते। दर्शन कर उपदेश श्रवण कर, तत्त्वज्ञान को पा लेते। भेदज्ञान अरु स्वानुभूति कर, शिवपथ में लग जाते हैं। अहो ! आप सम स्वाश्रय द्वारा, निज प्रभुता प्रगटाते हैं। जब तक मुक्ति नहीं होती, प्रभु पुण्य सातिशय होने से। चक्री इन्द्रादिक के वैभव, मिलें अन्न-संग के तुष-से ॥ पर उनको चाहे नहिं ज्ञानी, मिलें किन्तु आसक्त न हों। निजानन्द अमृत रस पीते, विष-फल चाहे कौन अहो? भाते नित वैराग्य भावना, क्षण में छोड़ चले जाते। मुनि दीक्षा ले परम तपस्वी, निज में ही रमते जाते॥ घोर परीषह उपसर्गों में मन सुमेरु नहिं कम्पित हो। क्षण-क्षण आनन्द रस वृद्धिंगत, क्षपकश्रेणि आरोहण हो। शुक्लध्यान बल घाति विनष्टे, अर्हत् दशा प्रगट होती। अल्पकाल में सर्व कर्ममल-वर्जित मुक्ति सहज होती॥ परमानन्दमय दर्श आपका, मंगल उत्तम शरण ललाम। निरावरण निर्लेप परम प्रभु, सम्यक् भावे सहज प्रणाम ।
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