Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

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Page 231
________________ 230 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह गुण अनन्त के सुमनों से हो शोभित तुम ज्ञायक उद्यान । त्रैकालिक ध्रुव परिणति में ही प्रतिपल करते नित्य विराम । ध्रुव के आश्रय से प्रभु तुमने नष्ट किया है काम-कलङ्क। पंच बालयति के चरणों में धुला आज परिणति का पङ्क । ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। हे प्रभु ! अपने ध्रुव प्रवाह में रहो निरन्तर शाश्वत तृप्त । षट्स की क्या चाह तुम्हें तुम निजरस के अनुभव में मस्त ।। तृप्त हुई अब मेरी परिणति ज्ञायक में करके विश्राम । पंच बालयति के चरणों में क्षुधा-रोग का रहा न नाम ।। ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। सहज ज्ञानमय ज्योति प्रज्ज्वलित रहती ज्ञायक के आधार। प्रभो ! ज्ञानदर्पण में त्रिभुवन पल-पल होता ज्ञेयाकार ।। अहो निरखती मम श्रुत-परणति अपने में तव केवलज्ञान । पंच बालयति के प्रसाद से प्रगट हुआ निज ज्ञायक भान ॥ ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा। त्रैकालिक परिणति में व्यापी ज्ञान सूर्य की निर्मल धूप। जिससे सकलकर्म-मल क्षयकर हुए प्रभो! तुम त्रिभुवन भूप॥ मैं ध्याता तुम ध्येय हमारे मैं हूँ तुममय एकाकार । पंच बालयति जिनवर ! मेरे शीघ्र नशो अब त्रिविध विकार॥ ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो अष्टकर्मविनाशनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा। सहज ज्ञान का ध्रुव प्रवाह फल सदा भोगता चेतनराज। अपनी चित् परिणति में रमता पुण्य-पाप फल का क्या काज ॥ अरे ! मोक्षफल की न कामना शेष रहे अब हे जिनराज। पंच बालयति के चरणों में जीवन सफल हुआ है आज ।। ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। पंचम परमभाव की पूजित परिणति में जो करें विराम। कारण-परमपारिणामिक का अवलम्बन लेते अविराम ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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