Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

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Page 235
________________ 234 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह सिद्धपरमेष्ठी को अर्घ्य जल पिया और चन्दन चरचा, मालायें सुरभित सुमनों की। पहनी, तन्दुल सेये व्यंजन, दीपावलियों की रत्नों की ।। सुरभि धूपायन की फैली, शुभ कर्मों का सब फल पाया । आकुलता फिर भी बनी रही, क्या कारण जान नहीं पाया ।। जब दृष्टि पड़ी प्रभुजी तुम पर, मुझको स्वभाव का भान हुआ। सुख नहीं विषय-भोगों में है, तुमको लख यह सद्ज्ञान हुआ ।। जल से फल तक का वैभव यह, मैं आज त्यागने हूँ आया। होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया ।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा । श्री सीमंधर भगवान को अर्घ्य निर्मलजल-सा प्रभु निजस्वरूप, पहिचान उसी में लीन हुए। भवताप उतरने लगा तभी, चन्दन-सी उठी हिलोर हिये ।। अभिराम भवन प्रभु अक्षत का, सब शक्ति प्रसून लगे खिलने। क्षुत् तृषा अठारह दोष क्षीण, कैवल्य प्रदीप लगा जलने । मिट चली चपलता योगों की, कर्मों के ईंधन ध्वस्त हुए। फल हुआ प्रभो ! ऐसा मधुरिम, तुम धवल निरंजन स्वस्थ हुए। ॐ ह्रीं श्रीसीमंधरजिनेन्द्राय नमः अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । विदेहक्षेत्र में विद्यमान बीस तीर्थंकरों को अर्घ्य जल फल आठों दर्व अरघ कर प्रीति धरी है। गणधर इन्द्रनि हूतै थुति पूरी न करी है ।। 'द्यानत' सेवक जानके (हो) जगते लेहु निकार । सीमंधर जिन आदि दे (स्वामी) बीस विदेह मँझार ।। श्री जिनराज हो भव तारणतरण जिहाज, श्री महाराज हो ।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरादिविद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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