Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

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Page 233
________________ आध्यात्मिक पूजन- विधान संग्रह मोह रहित निर्मल परिणति में करते प्रभुवर सदा विराम, गुण अनन्त का स्वाद तुम्हारे सुख में बसता है अविराम ॥ आत्म-पराक्रम निरख आपका कमठ शत्रु भी हुआ परास्त, क्षायिक श्रेणी आरोहण कर मोह शत्रु को किया विनष्ट । पार्श्वबिम्ब के चरण युगल में क्यों बसता यह सर्प कहो ?, बल अनन्त लखकर जिनवर का चूर कर्म का दर्प अहो ॥ क्षायिक दर्शन ज्ञान वीर्य से शोभित हो सन्मति भगवान !, भरतक्षेत्र के शासन नायक अन्तिम तीर्थंकर सुखखान । विश्व सरोज प्रकाशक जिनवर हो केवल मार्तण्ड महान, अर्घ्य समर्पित चरण-कमल में वन्दन वर्धमान भगवान ॥ ॐ ह्रीं श्री पंचबालयतिजिनेन्द्रेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालामहार्घ्यं नि. स्वाहा । (सोरठा) पंचम भाव स्वरूप पंच बालयति को नमूँ । पाऊँ ध्रुव चिद्रूप निज कारणपरिणाममय ॥ ॥ पुष्पांजलिं क्षिपामि ॥ तुम कहाँ से आये हो, यह जानना जरूरी नहीं, पर कहाँ जाना है ? यह निश्चय कर लो । पाने का आनन्द बड़ा होता है, पर देने का सुख भी छोटा नहीं होता; बशर्ते कि मन छोटा न हो । 232 भूल करना मानव की कमजोरी है, लेकिन उसे स्वीकार कर उसमें सुधार करना मानव की ताकत है। इच्छा पूर्ति होने का मार्ग दुख का मार्ग है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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