Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

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Page 238
________________ 237 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह श्री निर्वाण क्षेत्र को अर्घ्य जल गंध अक्षत फूल चरु फल, दीप धूपायन धरौं। 'द्यानत' करो निरभय जगत सौं, जोर कर विनती करौं । सम्मेदगढ़ गिरनार चम्पा, पावापुरि कैलाश कों। पूजों सदा चौबीस जिन, निर्वाण भूमि निवास कों। ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थकर-निर्वाणक्षेत्रेभ्योऽनर्घ्यपद-प्राप्तये अयं नि. स्वाहा। सप्त ऋषि मुनिराजों को अर्घ्य जल गंध अक्षत पुष्प चरुवर, दीप धूप सु लावना। फल ललित आठों द्रव्य मिश्रित, अर्घ कीजे पावना ॥ मन्वादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिन की पूजा करूँ । ता करें पातक हरें सारे, सकल आनन्द विस्तरूँ। ॐ ह्रीं श्रीमन्व-स्वरमन्व, निचय, सर्वसुन्दर, जयवान, विनयलालस, जयमित्र सप्त ऋषिभ्यो नमः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्व. स्वाहा। श्री जिनवाणी (सरस्वति) को अर्घ्य जल चंदन अक्षत फूल चरु, चत दीप धूप अतिफल लावै। पूजा को ठानत जो तुम जानत, सो नर ‘द्यानत' सुख पावै॥ तीर्थंकर की धुनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई। सो जिनवर-वानी, शिव-सुखदानी, त्रिभुवनमानी पूज्य भई। ॐ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भूत सरस्वतीदेव्यै नमः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि. स्वाहा । समुच्चय पूजन का अर्घ्य अष्टम वसुधा पाने को, कर में ये आठों द्रव्य लिये । सहज शुद्ध स्वाभाविकता से, निज में निज गुण प्रकट किये ।। यह अर्घ्य समर्पण करके मैं, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः अनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिभ्यश्च अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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