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आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह
अर्ध्यावलि
श्री देव-शास्त्र-गुरु को अर्घ्य जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूँ। वर धूप निरमल फल विविध बहु, जनम के पातक हरूँ ॥ इह भाँति अर्घ्य चढ़ाय नित भवि, करत शिव पंकति मचूँ । अरहंत श्रुत सिद्धान्त गुरु, निर्ग्रन्थ नित पूजा रयूँ ।।
(दोहा) वसु विधि अर्घ्य संजोयकै, अति उछाह मन कीन ।
जासों पूजों परम पद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री देव-शास्त्र-गुरु को अर्घ्य क्षण भर निजरस को पी चेतन मिथ्यामल को धो देता है। काषायिक भाव विनष्ट किये, निज आनन्द अमृत पीता है । अनुपम सुख तब विलसित होता, केवल-रवि जग-मग करता है । दर्शन-बल पूर्ण प्रकट होता यह ही अरहंत अवस्था है ।। यह अर्घ्य समर्पण करके प्रभु, निज गुण का अर्घ्य बनाऊँगा।
और निश्चित तेरे सदृश प्रभु, अरहन्त अवस्था पाऊँगा । ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
पंचपरमेष्ठी का अर्घ्य जल चन्दन अक्षत पुष्प दीप, नैवेद्य धूप फल लाया हूँ। अब तक के संचित कर्मों का, मैं पुंज जलाने आया हूँ॥ यह अर्घ्य समर्पित करता हूँ, अविचल अनर्घ्य पद दो स्वामी । हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव दुःख मेटो अन्तर्यामी ।। ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
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