Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

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Page 184
________________ 183 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह हुए सु गौतम गणधर पहले, दिव्यध्वनि सुखकारी। खिरी श्रावणी वदि एकम को, त्रिभुवन मंगलकारी ॥८॥ धर्मतीर्थ का हुआ प्रवर्तन, आत्मबोध जग पाया। प्रभो! आपका शासन पाकर, रोम-रोम हुलसाया ॥९॥ वर्ष बहत्तर आयु पूर्ण कर, सिद्धालय तिष्ठाये। तुम गुण चिन्तन मोह नशावे, भेदज्ञान प्रगटावे ॥१०॥ सहज नमनकर पूजन का फल और न कुछ भी चाहूँ। सहज प्रवर्ते तत्त्व भावना आवागमन मिटाऊँ॥११॥ ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालायँ निर्वपामीति स्वाहा। (बसन्ततिलका) सत्तीर्थ वीर प्रभु का जग में प्रवर्ते, निज तत्त्वबोध पाकर सब लोक हर्षे । दुर्भावना न आवे मन में कदापि, निर्विघ्न निर्विकारी आराधना प्रवर्ते। ॥ पुष्पांजलिं क्षिपामि॥ समुच्चय जयमाला (दोहा) मोहादिक रिपु जीतकर, जय पाई अविकार । जयमाला गाऊँ सुखद, गुण चिन्तन के द्वार। (त्रोटक) जय मंगलमय जय लोकोत्तम, जय अनन्य शरण जय पुरुषोत्तम । जय महावीर जय महाधीर, अवबोध-सिन्धु अति ही गम्भीर ।। जय तेजपुंज जय दिव्य-रूप, हे प्रशममूर्ति अति शान्त-रूप। जय वचन अगोचर हे महेश, जय स्वानुभूति गोचर जिनेश ।। जय ज्ञानमात्र परभाव शून्य, जय गुण अनंत से सदा पूर्ण । जय वीतमोह जय वीतक्रोध, जय वीतमान जय वीतलोभ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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