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आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह
जाने और देखता सबको, रहे तथा चैतन्य स्वरूप। श्रेष्ठ तत्त्व है वही विश्व में, उसी रूप मैं नहिं पररूप ।। राग द्वेष तन मन क्रोधादिक, सदा सर्वथा कर्मोत्पन्न । शत-शत शास्त्रश्रवण कर मैंने, किया यही दृढ़ यह सब भिन्न ॥५॥ दुषमकाल अब शक्ति हीन तन, सहे नहीं परीषह का भार । दिन-दिन बढ़ती है निर्बलता, नहीं तीव्र तप पर अधिकार । नहीं कोई दिखता है अतिशय, दुष्कर्मों से पाऊँ त्रास । इन सबसे क्या मुझे प्रयोजन, आत्मतत्त्व का है विश्वास ॥६॥ दर्शन ज्ञान परम सुखमय मैं, निज स्वरूप से हूँ द्युतिमान । विद्यमान कर्मों से भी है, भिन्न शुद्ध चेतन भगवान ।। कृष्ण वस्तु की परम निकटता, बतलाती मणि को सविकार । शुद्ध दृष्टि से जब विलोकते, मणि स्वरूप तब तो अविकार ॥७॥ राग-द्वेष वर्णादि भाव सब, सदा अचेतन के हैं भाव। हो सकते वे नहीं कभी भी, शुद्ध पुरुष के आत्मस्वभाव।। तत्त्व-दृष्टि हो अन्तरंग में, जो विलोकता स्वच्छ स्वरूप। दिखता उसको परभावों से, रहित एक निज शुद्ध स्वरूप ॥८॥ पर पदार्थ के इष्टयोग को, साधु समझते हैं आपत्ति । धनिकों के संगम को समझें, मन में भारी दुःखद विपत्ति ॥ धन मदिरा के तीव्रपान से, जो भूपति उन्मत्त महान । उनका तनिक समागम भी तो, लगता मुनि को मरण समान ॥९॥ सुखदायक गुरुदेव वचन जो, मेरे मन में करें प्रकाश। फिर मुझको यह विश्व शत्रु बन, भले सतत दे नाना त्रास ।। दे न जगत भोजन तक मुझको, हो न पास में मेरे वित्त । देख नग्न उपहास करें जन, तो भी दुःखित नहीं हो चित्त ॥१०॥
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