Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

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Page 213
________________ आध्यात्मिक पूजन- विधान संग्रह 212 जग में जिसको निज कहता मैं, वह छोड़ मुझे चल देता है । मैं आकुल-व्याकुल हो लेता, व्याकुल का फल व्याकुलता है ॥ मैं शान्त निराकुल चेतन हूँ, है मुक्तिरमा सहचर मेरी । यह मोह तड़ककर टूट पड़े, प्रभु ! सार्थक फल पूजा तेरी ॥ ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा । क्षणभर निजरस को पी चेतन, मिथ्यामल को धो देता है । काषायिक भाव विनष्ट किये, निज आनन्द अमृत पीता है || अनुपमसुख तब विलसित होता, केवलरवि जगमग करता है। दर्शन बल पूर्ण प्रगट होता, यह ही अर्हन्त अवस्था है ।। यह अर्घ समर्पण करके प्रभु, निज गुण का अर्घ बनाऊँगा । और निश्चित तेरे सदृश प्रभु, अर्हन्त अवस्था पाऊँगा || ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो ऽनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्व. स्वाहा । जयमाला (बारह भावना ) भव-वन में जीभर घूम चुका, कण-कण को जी भर भर देखा । मृगसम मृगतृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सुख की रेखा ॥ झूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशायें । तन-जीवन-यौवन अस्थिर हैं, क्षणभंगुर पल में मुरझायें ॥ सम्राट महाबल सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या ? अशरण मृतकाया में हर्षित, निज जीवन डाल सकेगा क्या ? संसार महादुख सागर के, प्रभु दुखमय सुख आभासों में । मुझको न मिला सुख क्षणभर भी, कंचन - कामिनि - प्रासादों में ॥ मैं एकाकी एकत्व लिये, एकत्व लिये सब ही आते । तन-धन को साथी समझा था, पर ये भी छोड़ चले जाते ॥ मेरे न हुए ये मैं इनसे, अतिभिन्न अखण्ड निराला हूँ । निज में पर से अन्यत्व लिये, निज समरस पीनेवाला हूँ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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