Book Title: Adhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Author(s): Ravindra
Publisher: Kanjiswami Smarak Trust Devlali

Previous | Next

Page 225
________________ आध्यात्मिक पूजन- विधान संग्रह मोहान्धकार के नाश हेतु, तुम ही हो दिनकर अतिप्रचण्ड । हो स्वयं अखण्डित कर्मशत्रु को, किया आपने खण्ड-खण्ड ॥ गृहवास राग की आग त्याग, धारा तुमने मुनिपद महान । आतमस्वभाव साधन द्वारा, पाया तुमने परिपूर्ण ज्ञान ॥ तुम दर्शन ज्ञान - दिवाकर हो, वीरज मंडित आनन्द कन्द । तुम हुए स्वयं में स्वयं पूर्ण, तुम ही हो सच्चे पूर्णचन्द ॥ पूरव विदेह में हे जिनवर, हो आप आज भी विद्यमान । हो रहा दिव्य उपदेश भव्य, पा रहे नित्य अध्यात्म ज्ञान ॥ श्री कुन्दकुन्द आचार्य देव को, मिला आपसे दिव्यज्ञान । आत्मानुभूति से कर प्रमाण, पाया उनने आनन्द महान । पाया था उनने समयसार, अपनाया उनने समयसार । समझाया उनने समयसार, हो गये स्वयं वे समयसार ॥ दे गये हमें वे समयसार, गा रहे आज हम समयसार । समयसार बस एक सार, है समयसार बिन सब असार । मैं हूँ स्वभाव से समयसार, परिणति हो जावे समयसार । है यही चाह, है यही राह, जीवन हो जावे समयसार ॥ ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालार्घ्यं नि. स्वाहा । समयसार है सार, और सार कुछ है नहीं । महिमा अपरम्पार, समयसारमय आपकी ॥ ॥ पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि ॥ सत्य स्वयं प्रकाशित होता है, उसे दिया नहीं दिखाना पड़ता । साँच को आँच नहीं । 224 केवल जुटावोगे तो बोझ बढ़ेगा, केवल लुटावोगे तो खोखले हो जाओगे। दोनों का सन्तुलन रखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242